Tuesday, April 30, 2013

चले हज़ार कोस

भाई अनिल हर्षे ने मुझे लगभग चमत्कृत करते हुए मेरी एक पुरानी ग़ज़ल की मुझे याद दिलाई है। वैसे मुझे तो यह कभी भूली नहीं, पर अब अनिल जी की प्रेरणा से इसे यहाँ साझा कर रहा हूँ।

उस शक्ल की तलाश में चले हज़ार कोस,
झंखाड़ ग़र्द घास में चले हज़ार कोस।

हर सुबह ज़िंदगी के इंतज़ाम में गई,
हर शाम एक लाश ले चले हज़ार कोस।

तेवर उछालने की रस्म क़ीमती सुनी,
तो तेवरों की आस में चले हज़ार कोस।

बरबादियों के सिलसिले बनते चले मग़र
ज़िंदा वही उछाह ले चले हज़ार कोस।

सूरज की रोशनी तो नहीं पा सके अभी,
तारों की धूप-छाँव में चले हज़ार कोस।


(यह सब फेसबुक पर 2 9 अप्रैल को हुआ था। आज 30 अप्रैल को इसे यहाँ भी प्रस्तुत कर रहा हूँ।)

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