Saturday, May 18, 2013

18 मई


18 मई, 1974 को पोखरन में भारत द्वारा पहला परमाणु परीक्षण किया गया था। तब मैं विश्वविद्यालय में बी.एस.सी. का द्वितीय वर्ष का छात्र था तारीख इतनी स्पष्टता से याद है, यानी घटना का मन पर ख़ासा असर पड़ा रहा होगा। संभवतः कुछ गर्व की या काफ़ी गर्व की अनुभूति रही हो, क्योंकि तब आलोचनात्मक विवेक की सीमायें उम्र के हिसाब से रही होंगी।

पर मज़े की बात यह है कि बाद के वर्षों में 18 मई की तारीख मुझे भीतर तक याद तो बनी रही, लेकिन 18 मई, 1976 की वजह से। 18 मई को मेरी बी.एच.यू. की एक सहपाठिनी और मित्र का जन्मदिन होता है। स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर वह वाराणसी के ही राजघाट स्थित वसंत कॉलेज में बी.एड. की पढ़ाई कर रही थी और वहीं हॉस्टल में रहती थी। मैं बी.एच.यू. में ही पत्रकारिता का छात्र हो गया था। 18 मई, 1976 को मुझे इच्छा हुई कि मैं उसे जन्मदिन की शुभकामना दूं। तब फ़ोन ही अति दुर्लभ होते थे, मोबाइल तो तब संसार में ही शायद नहीं था। कितने अच्छे दिन थे वे!

सो मैं अपनी प्यारी खटारा साइकिल पर चल पड़ा। बी.एच.यू. से वसंत कॉलेज की अच्छी-ख़ासी दूरी है - कम से कम 10 किलोमीटर तो होगी, बल्कि ज़्यादा ही। धुआंधार लू के थपेड़ों को झेलते-झेलते यात्रा हुई और उसके दौरान लगभग चार-पांच बार रुकना पड़ा, क्योंकि साइकिल के नंबर की जांच यातायात पुलिस द्वारा उस दिन बड़े उत्साह से की जा रही थी (जी हाँ, तब साइकिल के नंबर भी होते थे और उनकी जांच भी होती थी) और चूंकि मेरी साइकिल नंबर-विहीन हुआ करती थी,  बार-बार दंड के तौर पर (शायद एक रूपये का) जुर्माना लगता जा रहा था। राजघाट पहुँचते-पहुंचते शाम ढलने को हो आई थी और जेब लगभग ख़ाली हो चुकी थी।

उन दिनों बनारस में या करीब-करीब अधिकाँश देश में टेलीविज़न नहीं था और सिनेमा हाल में ही वस्तुओं की विज्ञापन फ़िल्में सामान्य लोग देख पाते थे। कम देख पाते थे, तो उनका ग्लैमर और आकर्षण दूर और देर तक बना रहता था। कैडबरी की फ़ाइव-स्टार चॉकलेट नई-नई आई थी, ख़ूब विज्ञापित हो रही थी और जन्मदिन शुभकामना समर्पण यात्रा पर चलने के पहले ही इसका एक 'बार' मैंने (अपनी कठिन आर्थिक दुरवस्था में से गुंजाइश निकाल कर) साथ रख लिया था कि 'उसे' भेंट में दूंगा। लू में तपते-भुनते, कड़ी धूप  में हांफ़ते-तड़पते, पसीने से तरबतर वे क्षण आज कितनी ठंडक देते हैं।

बहरहाल जब पहुंचा, शाम ढल रही थी। मुझे इस तरह अचानक आया देख कर वह चौंक गई। उसकी कोई सहपाठिन भी उसके साथ थी। मुझे यह कहने में बड़ी शर्म सी आई कि मैं उसे जन्मदिन पर शुभकामना देने आया हूँ। शायद कहा कि ऐसे ही इधर से गुज़र रहा था और लगा कि चलो, मिल लूं। उसने कहा कि मिल सकने की अनुमति का समय तो अब ख़तम होने को है। मैंने कहा कि कोई बात नहीं, मुझे भी अब जाना ही है। फिर अचानक उसने पूछा, चाय पिओगे? मैंने कहा - हाँ, पी लूँगा। उसने पम्प स्टोव जलाया और चाय बनाई। चाय में हल्की सी मिट्टी के तेल की गंध बस गई थी, जो अब भी याद आ कर मन महका देती है।

समय बहुत ही ज़्यादा तेज़ी से भाग रहा था। मेरे चाय ख़तम करते-करते उसका चेहरा फिर चिंतातुर होने लगा था। मिलने की अनुमति का समय समाप्त हो चला था। मैंने कहा कि चलता हूँ। उसने कहा-ठीक है, जाओ। बाहर निकला तो दो क़दम वह साथ आई। साइकिल स्टैंड से उतार कर अचानक मैंने उसका नाम ले कर कहा, तुम्हें जन्मदिन बहुत-बहुत मुबारक़। उसने अचकचा कर मुझे देखा। मैंने शर्ट की जेब में हाथ डाला, फ़ाइव-स्टार चॉकलेट निकाली, जो घंटों से धूप और लू भुगत कर विचित्र अवस्था प्राप्त कर चुकी थी और उसकी ओर बढ़ा दी। वह क़यामत का पल था। उसने एक क्षण अबूझ दृष्टि से मुझे देखा और फिर चॉकलेट अपने हाथ में ले ली। सामने गंगा की अजस्र धारा बह रही थी। मैं लौट पड़ा।

लगभग 34 वर्ष बाद फिर उसका संपर्क सूत्र मिला। हम दोनों अब परिवार वाले हैं और अब हमारा पारिवारिक दोस्ताना है। शहर अलग-अलग हैं, पर यह तो मोबाइल का ज़माना है। साल-छह महीने में बातचीत हो जाती है।

पुनः संपर्क के बाद जब पहली 18 मई आई, तो मैंने उसे फ़ोन कर जन्मदिन की मुबारक़बाद दी। किसी ने, शायद पत्नी ने, किंचित व्यंग्य के साथ मेरी याददाश्त की तारीफ़ की कि इतने साल बाद भी 'सहेली' का जन्मदिन याद है। मैंने कहा कि 18 मई की तारीख़ तो याद रह ही जाती है, क्योंकि देश ने 1974 में इसी तारीख़ को तो अपना पहला परमाणु परीक्षण किया था, सो यह memory association का मामला है।

आज भी तो 18 मई है।

पलक की दीवार

आजकल पुरानी रचनाओं की यादें घुमड़ रही हैं। अपनी सबसे पहली लिखी ग़ज़ल यहाँ साझा कर रहा हूँ। इसकी भी धुन मेरे परम मित्र सुदीप कुमार भट्टाचार्य ने बनाई थी। सुदीप आज सपरिवार आया था। आजकल कोलकाता वासी है। सो यादों का सिलसिला जो चला तो 'पलक की दीवार' के आर-पार पहुंचा।

पलक की दीवार के आगे जहां ख़ामोश होगा,
बात तो बस इस ज़माने के लिये सोची हुई है।

कांपते हैं होठ कहने के लिए बातें ज़रूरी
और ज़रुरत उम्र के पथराव की थोपी हुई है।

बोलने का शोर साँसों में घुले, हों सोच मुर्दे,
ज़िंदगी ने आज की दी शर्त ये ओढ़ी हुई है।

जब कभी चुपचाप होता हूँ तो आती है क़यामत,
मेरी हर चुप्पी ने सोचों से कड़ी जोड़ी हुई है।

मौत की ठंडी छुअन हर सोच को जिंदा करेगी,
सोचने की ताक़तें इस ख़्याल में खोई हुई हैं।