आजकल पुरानी रचनाओं की यादें घुमड़ रही हैं। अपनी सबसे पहली लिखी ग़ज़ल यहाँ साझा कर रहा हूँ। इसकी भी धुन मेरे परम मित्र सुदीप कुमार भट्टाचार्य ने बनाई थी। सुदीप आज सपरिवार आया था। आजकल कोलकाता वासी है। सो यादों का सिलसिला जो चला तो 'पलक की दीवार' के आर-पार पहुंचा।
पलक की दीवार के आगे जहां ख़ामोश होगा,
बात तो बस इस ज़माने के लिये सोची हुई है।
कांपते हैं होठ कहने के लिए बातें ज़रूरी
और ज़रुरत उम्र के पथराव की थोपी हुई है।
बोलने का शोर साँसों में घुले, हों सोच मुर्दे,
ज़िंदगी ने आज की दी शर्त ये ओढ़ी हुई है।
जब कभी चुपचाप होता हूँ तो आती है क़यामत,
मेरी हर चुप्पी ने सोचों से कड़ी जोड़ी हुई है।
मौत की ठंडी छुअन हर सोच को जिंदा करेगी,
सोचने की ताक़तें इस ख़्याल में खोई हुई हैं।
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