29 अप्रैल को इरफ़ान ख़ान गए, 30 अप्रैल को ऋषि कपूर. सिनेमा की दुनिया के, अभिनय के संसार के दो दिग्गज नाम. वैसे दोनों की दुनिया ख़ासी अलग-अलग थी. ऋषि हिंदी सिनेमा की 'फ़र्स्ट फ़ैमिली' में जन्मे. जैसे उनके चाचा शशि कपूर ने 'आवारा' में अपने बड़े भाई राज कपूर के बचपन की भूमिका से अपनी अभिनय यात्रा शुरू की थी, ऋषि ने अपनी पहली भूमिका में पिता राज कपूर का बचपन 'मेरा नाम जोकर' के पहले भाग में निभाया (पहला भाग उस फिल्म का सर्वश्रेष्ठ भाग था). फिर उन्हें महान शोमैन ने 'बॉबी' में ऐसा प्रस्तुत किया कि वे तरुण और निश्छल रोमांस के प्रतिनिधि नायक बन गए. और यह छवि फ़िल्म-दर-फ़िल्म उनके साथ चलती रही. उम्र बढ़ने के साथ भूमिकाओं के रंग-रोगन में कुछ परिवर्तन अनिवार्य थे, वे हुए, पर बुनियादी तौर पर सिनेमा के परदे पर ऋषि कपूर सहृदय और सज्जन प्रेमी ही बने रहे. इस स्थिति में निर्णायक बदलाव आना लोग 2012 की फ़िल्म 'अग्निपथ' से मानते हैं, जिसमें उन्होंने रऊफ़ लाला का किरदार निभाया और फिर दिलचस्प तथा अपेक्षाकृत अधिक यथार्थपरक चरित्रों को साकार करने की चुनौतियों का मज़ा उठाते चले गए. इस तरह उन्होंने अपनी बदल चुकी देहयष्टि और शक्ल-सूरत को अपने अभिनेता की नयी शक्ति भी बना लिया और एक कहीं ज़्यादा बेहतर और समृद्ध विरासत छोड़ना भी सुनिश्चित कर लिया. ज़रा सोचिए, आज हमारे पास 'दो दूनी चार' और 'मुल्क़' न होतीं, तो ऋषि के अवदान को हम किस तरह याद कर रहे होते!
इरफ़ान की कहानी बहुत अलग तरह से शुरू हुई, पनपी और बढ़ी. राजस्थान के एक छोटे शहर टोंक से शुरू कर जयपुर होते हुए वे दिल्ली आए, थिएटर का विधिवत प्रशिक्षण लिया और जूझने लगे. टेलीविज़न के रास्ते उठे, फ़िल्मों तक पहुंचे और बहुत दिनों तक छोटे-छोटे अवसरों के सहारे टिके रहे. मैंने सबसे पहले इरफ़ान की जो फिल्म देखी थी, वह 2002 में बनी 'प्रथा' थी राजा बुंदेला की, जिसमें इरफ़ान ने एक ढोंगी साधु की भूमिका निभाई थी. फिल्म राजा बुंदेला के नाम पर देखी थी, पर याद इरफ़ान रह गए. 'हासिल' और 'मक़बूल' के बाद उनका सितारा जो चमका, तो फिर पूरी दुनिया उनकी अद्भुत प्रतिभा का लोहा मानती चली गई. अपनी सफलता का एक-एक रेशा इरफ़ान ने ख़ुद को खराद पर चढ़ा कर कमाया. और फिर बहुत जल्दी, बहुत ही जल्दी चले गए. 'पान सिंह तोमर' और 'लंचबॉक्स' जो दे गया, वह और क्या-क्या कुछ कर सकता था, सोच कर ग़ुस्सा और रोना - दोनों आता है.
मेरी अपनी तरुणाई की करवटों के ज़माने में ऋषि भी साथ थे और उम्र कितनी ही हो जाए, जो तरुणाई भीतर बची ही रहनी है, उसमें वे रहेंगे. परिपक्वता (जितनी भी सध सकी है) को रोशन करने वालों में इरफ़ान की आँखों का उजाला भी मिला, यह हमारी पीढ़ी का सौभाग्य था. अलविदा, जादूगरो.
बहुत अच्छा लिखा है
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