शायद 1980 का साल था। जबलपुर में आनंद नगर में रहता था। वरिष्ठ (तब भी वे वरिष्ठ थे) कवि मलय जी मेरे घर आए थे। मैंने तब हाल ही में रचा अपना एक गीत उन्हें सुनाया 'घर में आए महरी'। मलय जी मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के उद्भट विद्वान थे और हैं। उन्हें देख-सुन कर कई लोगों को मुक्तिबोध का स्मरण हो आता रहा है। मलय जी ने कहा - "पार्टनर, इसमें यथार्थ अपनी समूची जटिलता और ऐतिहासिकता के साथ नहीं आ पाया है। इस पर और काम करो।" फिर मैं उनको अपनी साइकिल पर पीछे बिठा कर उनके घर पहुंचाने गया। लगभग पूरे रास्ते उनके विवेचन से लाभान्वित होता रहा।
दो-तीन दिनों बाद मलय जी किसी समागम में मिले। मुझे देख कर सीधे मेरे पास आए और बोले - "पार्टनर, उस गीत में कुछ फेरबदल मत करना। तब से जब-जब अपने घर काम वाली बाई को देखता हूँ, तो तुम्हारी रचना की अलग-अलग पंक्तियाँ याद आती हैं। वह जैसी है, ठीक है।" स्वाभाविक है, सुन कर अच्छा लगा, यद्यपि पूरी आश्वस्ति नहीं हुई।
इसके बाद, वर्ष 1989 या 1990 की बात होनी चाहिये, खैरागढ़ में कविता केन्द्रित कार्यक्रम 'ऋतु संहार' में भागीदारी का मौका मिला। वहां मैंने अन्य कुछ कविताओं के साथ यह गीत भी सुनाया। वरिष्ठ (सदा से) आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा - "यह तो भोजपुरी लय का गीत है, गा कर क्यों नहीं सुनाते?" मुझे कविता-पाठ के दौरान उसका गाया जाना बहुत प्रिय नहीं है, पर मैंने गाने जैसा कुछ किया। वह जैसा भी बना हो, तब से अब तक डॉ. त्रिपाठी जब भी मिलते रहे हैं, कई बार सालों के अंतराल के बाद, अगर मुझे पहचान पाते या जाते हैं, तो उन्हें 'महरी का गीत' याद आ जाता है और मैं अनिर्वचनीय सुख और आभार में डूब जाता हूँ।
अपने बारे में या अपनी रचना के बारे में ख़ुद इस तरह लिखना उचित नहीं है, इसमें अहमन्यता की गंध आती है, जिसका कम से कम मुझे कोई अधिकार नहीं है। पर कभी-कभी ऐसी दुर्बलता के लिए क्षमा माँगी जा सकती है।
बहरहाल, वह गीत यहाँ प्रस्तुत है: -
घर में आए महरी,
कुछ सुनती, कुछ बहरी,
ज़रा तनी सी, आख़िर ठहरी
चौका-बासन महरी।
घर में आए महरी,
बर्तन मांजे महरी,
झाडू ले कर, पोंछा ले कर,
झुकी-झुकी सी महरी।
बेटी लाए महरी,
काम सिखाए महरी,
आधे बर्तन उसे थमा कर,
थकी-थकी सी महरी।
हाथ बंटाए महरी,
चावल बीने महरी,
चावल के दानों पर जैसे
रुकी-रुकी सी महरी।
क्या पाएगी महरी,
क्या खाएगी महरी,
खैनी मलती, होंठ सिकोड़े,
घने सोच में महरी।
घर में आए महरी,
कुछ सुनती, कुछ बहरी,
ज़रा तनी सी, आख़िर ठहरी
चौका-बासन महरी।
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