कल अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस था। हमारा समय भांति-भांति के दिवसों और सप्ताहों और पखवाड़ों और माहों से भरा पड़ा है, जिनमें कई जनकल्याण के मुद्दों से भी जुड़े होते हैं, पर अब अधिकतर का संचालन विश्वव्यापी बाज़ार की शक्तियों द्वारा प्रथमतः अपने हित-साधन के लिये किया जाता है, हमारे अति-प्राचीन, परम्पराओं और स्मृतियों में रचे-बसे पर्वों-त्योहारों का भी। तो अब मन ऐसे बहुत से अवसरों में बहुत रमता नहीं। पर कुछ अपवाद भी हैं, जो हर एक के लिये अलग-अलग भी हो सकते हैं, अक्सर होते ही हैं। मेरी जिनसे भावात्मक संलग्नता बनी हुई है, उनमें अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का विशेष स्थान है, एक ऐसा दिन, जो परंपरा और यथास्थिति के अन्तर्सम्बन्धों के आकलन और परिवर्तन की कामना और राह खोजने के लिये कोंचता है, बेचैन और क्षुब्ध भी करता है और उम्मीद भी जगाता है। मैं दो बेटियों का पिता होने के सौभाग्य से संपन्न हूँ। आकाशवाणी, दिल्ली के 'गोल्ड' चैनल पर एक विशेष कार्यक्रम के लिये कई लोगों के साथ मुझसे भी पूछा गया कि "मेरी बेटियां मेरा गौरव क्यों हैं"। कई ने अपनी बेटियों की विशिष्ट उपलब्धियों का ज़िक्र किया, पर मुझे इस बात को उस तरह सोचना कुछ अजीब लगा। अंततः जो मैं कह सका, वह यह था कि मैं जानता हूँ कि मेरा जो बेहतर अंश है, वह मेरी बेटियों में है। बड़ी बेटी के जन्म के बाद कविता लिखी थी 'बिटिया'। उस कविता को यहाँ बाँट रहा हूँ: -
बिटिया
घनी मुसीबतों के बीच
तुम आईं हम तक
उम्मीद हो कर
चमकती लपक हो कर
हो कर ज़रुरत
कल की
कल के लिये
देखो हमारा घर
होता हुआ तुम्हारा घर भी
उमगता है कैसे
दीवारों के बीच
खिड़कियों के
उजास-संकेतों में
नहाता हुआ
सुनो, बिटिया, सुनो
मेरी आवाज़ का
भर्राया भारीपन
तुम्हारे रोने से
तरल होता हुआ
सूँघो-चखो
मां के अपनी दिल पर
महमहाते
सफ़ेद फूलों की
किलकती नदी
बिटिया,
तुम हमसे
लेती चलो हमको
अपने साथ
आगे तक
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