पिछली बार यह ब्लॉग या चिट्ठा 2014 के मार्च महीने में लिखा था. उन दिनों जब-जब लिखता था, यह विलाप ज़रूर करता था कि अंतराल बहुत ज़्यादा हो जाते हैं. अब क्या बिसूरूं, जब अंतराल दिनों, सप्ताहों या महीनों भर का नहीं, कई सालों का है.
इस बीच बहुत कुछ बदल गया है. वर्ष 2018 के अक्टूबर माह में छोटी बेटी विधा का विवाह हो चुका है. बड़ी बेटी मेधा की बिटिया मिशिका का विद्यालयीन जीवन आरम्भ हो गया है. मैं आकाशवाणी की नियमित सेवा से जुलाई, 2017 में अवकाश प्राप्त कर चुका हूँ. फिर विशेष कार्य अधिकारी के तौर पर सम्बद्धता बनी रही, लेकिन वह भी 31 दिसम्बर, 2019 को समाप्त हो गई है. 1 जनवरी, 1981 को रायपुर में प्रारंभ मेरे जीवन के आकाशवाणी अध्याय का अंततः अंत हो गया है. और अब नया जीवन 1 जनवरी, 2020 से शुरू हो पाया है.
मुक्ति का यह अनिर्वचनीय अहसास है, जिसमें फ़िलहाल मैं मगन हूँ. आज विश्व पुस्तक मेले में लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के साथ एक प्रतिरोध प्रदर्शन में शिरकत की. लगा, जैसे कहीं खोए हुए ख़ुद को फिर से देख पा रहा हूँ.
इस वर्ष नूतन वर्षाभिनंदन का जो सन्देश मित्रों-स्नेहियों को भेजा, उसमें आरम्भ इन पंक्तियों से किया: -
"उत्सुक स्वागत नये वर्ष का अब भी क्यों करता है रे मन,
घिरते चारों ओर अंधेरे, दहक रहे सारे चंदन-वन,
पर लड़ना ही एक राह है जिस पर फूटेंगे उजियारे,
नयी सांस की नयी आस में कुछ तो महकें सबके जीवन।"
घिरते चारों ओर अंधेरे, दहक रहे सारे चंदन-वन,
पर लड़ना ही एक राह है जिस पर फूटेंगे उजियारे,
नयी सांस की नयी आस में कुछ तो महकें सबके जीवन।"
आज इस फिर से की गई शुरुआत का अंत इन्हीं पंक्तियों से कर रहा हूँ. आमीन.
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