Saturday, May 18, 2013

पलक की दीवार

आजकल पुरानी रचनाओं की यादें घुमड़ रही हैं। अपनी सबसे पहली लिखी ग़ज़ल यहाँ साझा कर रहा हूँ। इसकी भी धुन मेरे परम मित्र सुदीप कुमार भट्टाचार्य ने बनाई थी। सुदीप आज सपरिवार आया था। आजकल कोलकाता वासी है। सो यादों का सिलसिला जो चला तो 'पलक की दीवार' के आर-पार पहुंचा।

पलक की दीवार के आगे जहां ख़ामोश होगा,
बात तो बस इस ज़माने के लिये सोची हुई है।

कांपते हैं होठ कहने के लिए बातें ज़रूरी
और ज़रुरत उम्र के पथराव की थोपी हुई है।

बोलने का शोर साँसों में घुले, हों सोच मुर्दे,
ज़िंदगी ने आज की दी शर्त ये ओढ़ी हुई है।

जब कभी चुपचाप होता हूँ तो आती है क़यामत,
मेरी हर चुप्पी ने सोचों से कड़ी जोड़ी हुई है।

मौत की ठंडी छुअन हर सोच को जिंदा करेगी,
सोचने की ताक़तें इस ख़्याल में खोई हुई हैं।

Tuesday, April 30, 2013

ज़िंदगी के पास

कल भाई अनिल हर्षे की प्रेरणा से एक पुरानी ग़ज़ल की याद ने पंख फैलाए थे। उस पर मित्रों-स्नेहियों की सुखद प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही बहुत भाई। उनमें से एक थी सतना के पुराने साथी मणिमय मुखर्जी की, जो अब भिलाई वासी हैं और जैसे तब जनगीतों और जनपक्षधर रंगकर्म से अलख जगाते थे, वैसे ही अब भी सक्रिय और सन्नद्ध हैं। उन्होंने भी मेरा एक पुराना गीत याद दिलाया और मुझे और भी विस्मित करते हुए पूरे गीत का पाठ अपनी प्रतिक्रिया में लिख दिया। मेरा लोभ मित्रगण बढ़ा रहे हैं और उस गीत को भी मैं यहाँ दोहराने जा रहा हूँ।

इसे मैंने बी.एच.यू. यानि काशी विश्वविद्यालय के अपने छात्र जीवन के उत्तरार्द्ध में लिखा था। मेरे विद्यालय से ले कर युनिवर्सिटी सखा (और वह सखापन अब जीवन के उत्तरार्द्ध में भी जारी है), प्रतिभाशाली कवि-कथाकार और अद्भुत गायक तथा संगीत रसिक सुदीप कुमार भट्टाचार्य ने इसकी धुन बनाई थी और अधिकांशतः वही इसे गाते भी थे और हैं। पर इसे मणिमय और कुछ अन्य रंगकर्म के साथियों का स्नेह भी मिला था।

आओ, हम चलें ज़िंदगी के पास,
पहुंचेंगे हम ज़रूर,
होना न तुम उदास।

आँखें थकी खोई सी
हारे थके से लोग,
सपनों की लाशों को
काँधे उठाए लोग।

उनको बताएंगे, हारा नहीं प्रकाश,
पहुंचेंगे हम ज़रूर,
होना न तुम उदास।

साँसें लगन को भूल कर
क्यों बन चलीं मशीन,
बातें कहाँ पर जम गईं
काली हुई ज़मीन।

सबको दिखाएंगे, नीला अभी आकाश,
पहुंचेंगे हम ज़रूर,
होना न तुम उदास।

चले हज़ार कोस

भाई अनिल हर्षे ने मुझे लगभग चमत्कृत करते हुए मेरी एक पुरानी ग़ज़ल की मुझे याद दिलाई है। वैसे मुझे तो यह कभी भूली नहीं, पर अब अनिल जी की प्रेरणा से इसे यहाँ साझा कर रहा हूँ।

उस शक्ल की तलाश में चले हज़ार कोस,
झंखाड़ ग़र्द घास में चले हज़ार कोस।

हर सुबह ज़िंदगी के इंतज़ाम में गई,
हर शाम एक लाश ले चले हज़ार कोस।

तेवर उछालने की रस्म क़ीमती सुनी,
तो तेवरों की आस में चले हज़ार कोस।

बरबादियों के सिलसिले बनते चले मग़र
ज़िंदा वही उछाह ले चले हज़ार कोस।

सूरज की रोशनी तो नहीं पा सके अभी,
तारों की धूप-छाँव में चले हज़ार कोस।


(यह सब फेसबुक पर 2 9 अप्रैल को हुआ था। आज 30 अप्रैल को इसे यहाँ भी प्रस्तुत कर रहा हूँ।)

Wednesday, March 27, 2013

रंग गाएं

रंग आएं, रंग जाएं, रंग आँखों को लुभाएँ,
रंग झूमें, रंग गाएं, रंग तन-मन में समाएं,
रंग महकें, रंग छाएँ, रंग सपनों को सजाएं,
रंग, संग, उमंग मिल कर, धूम होली की मचाएं।

सबको सभी स्नेहियों-स्वजनों के साथ होली की असीम शुभकामनायें।

Wednesday, February 20, 2013

अब तक का आख़िरी पूरा गीत

आज अपना एक पुराना गीत बांटने का मन हो आया है: -

गीत लिखना चाहता हूँ
गीत लिखना चाहता हूँ।

शब्द आँखों में अड़े हैं
जीभ पर ताले जड़े हैं
हादसे इतने हुए हैं
रास्ते गुमसुम खड़े हैं

उम्र के इस मोड़ पर फिर भी
स्वयं को साफ़ दिखना चाहता हूँ
गीत लिखना चाहता हूँ।

फूल सब गिरते गए हैं
हौसले थिरते गए हैं
डगमगाते पाँव पीछे की तरफ़
फिरते गए हैं

राह जो आगे धकेले उस हवा के
संग सिंकना चाहता हूँ
गीत लिखना चाहता हूँ।

वैसे अब अहसास हो रहा है कि पुराना सही पर अब तक का मेरा यह आख़िरी पूरा गीत है।

Friday, February 1, 2013

काफ़ी पहले की अपनी एक ग़ज़ल

काफ़ी पहले लिखी (यह बात झलकती है) अपनी इस सीधी-सादी ग़ज़ल को न जाने क्यों फिर पढ़ने और पढ़वाने का जी हो आया है: - 

उसकी आँखों का उजियारा,
हर ले गया अँधेरा सारा।

सच में पहली बार मिला है,
ज़िंदा जिस्म, धड़कता नारा।

चौखट से जब पाँव निकाले,
कुंठाओं ने किया किनारा।

गीत गाँव में गूँज उठा है,
अपनी धरती, अम्बर सारा।

Friday, October 12, 2012

70 के अमिताभ

कल 11 अक्टूबर को सारा मीडिया तथाकथित 'सदी के महानायक' श्रीमान अमिताभ बच्चन के जन्मदिन पर न्योछावर हुआ जा रहा था। हमारे समय के विचलन और स्खलन का संभवतः यह भी एक संकेत था कि इस पूरी हायतोबा में कहीं इस तथ्य का उल्लेख तक देखने को नहीं मिला कि यह लोकनायक जयप्रकाश नारायण का जन्मदिन था, जो निश्चय ही भारत के लिये श्रीमान 'बेचन या बेचो कुमार' से कहीं ज्यादा बड़ा व्यक्तित्व है। और अमिताभ पर चर्चा में ज़ी बिज़नेस चैनेल पर एक सूची उनकी फ़्लॉप यानी असफल फ़िल्मों की गिनाई गई, जिसमें पहला नाम अमिताभ की पहली फ़िल्म 'सात हिन्दुस्तानी' का बताया गया। मतलब यह कि ख्वाज़ा अहमद अब्बास की जिस मार्मिक फ़िल्म से अमिताभ का चित्रपट सफ़र शुरू हुआ, उसका दर्ज़ा अब सिर्फ़ उनकी एक कमा न पाने वाली फ़िल्म का है। हम लोग प्रगतिशील विचारधारा में विश्वास रखते हैं और भविष्य को, नूतन को आशा और अनुराग से देखते हैं या देखना चाहते हैं। पर इस मूल्य या मूल्यांकन पद्धति से तो स्तब्ध ही हुआ जा सकता है। खैर, चलो, अमिताभ 70 के हुए पर अभी काफ़ी दिन काफ़ी कुछ बिकवाते चलेंगे और फिर उनके सुपुत्र और पुत्रवधू तो 'बेचन' परिवार की परंपरा को आगे बढ़ाएंगे ही। बहरहाल, 'सात हिन्दुस्तानी', 'आनंद', 'अभिमान', 'आलाप' और उन जैसी कुछ और गिनीचुनी फिल्मों के कलाकार अमिताभ को जन्मदिन की बधाई कि उन्होंने सार्थक और बेहतर सिनेमा में बड़े योगदान की उम्मीदें तो जगाई ही थीं, पूरी नहीं हुईं तो कोई बात नहीं। और कौन जाने, भविष्य में क्या हो।