Monday, August 16, 2021

'काबुलीवाला' की बेटी की गुहार

कल बीते देश के पचहत्तरवें स्वतंत्रता दिवस की कुछ गहमागहमी के बीच और साथ-साथ अफ़ग़ानिस्तान से डरावनी ख़बरों का सिलसिला बना रहा और सांझ ढलते-ढलते वहां के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी के देश छोड़ कर निकलने और काबुल पर तालिबान का नियन्त्रण है जाने के समाचार आने लगे। अफ़ग़ान लोगों और विशेषकर स्त्रियों के लिये बेहद तक़लीफ़ भरे दिनों की वापसी हो चुकी है।

बीते कुछ दशकों में जो दुनिया की अकेली महाशक्ति की भूमिका निभाने को ले कर लगभग उन्मत्त रहा है, वह संयुक्त राज्य अमेरिका एक बार फिर चीज़ों को उलट-पलट कर और काफ़ी कुछ बरबाद कर के वहां से निकल चुका है। हालांकि सच्चाई यह भी है कि अफ़ग़ानिस्तान की बदहाली की यह कहानी अकेले अमेरिका ने नहीं लिखी। इसमें पूर्व सोवियत संघ की भीषण रणनीतिक भूलें भी गुंथी हुई हैं, नाटो देशों की अमेरिका से कुछ ही कम संलिप्तता है, पाकिस्तान की आत्मघाती कुटिलता है और अफ़ग़ानिस्तान के अपने समाज की सामंती समझ और एक प्रभावशाली वर्ग की धर्मान्धता तो एक प्रमुख कारक है ही।

पर गहरी उदासी में गिरफ़्तार मैं जब इस बारे में सोचता हूं, तो साफ़ नज़र आता है कि दुनिया में जहां-जहां बाहरी शक्तियों ने किसी समाज या क्षेत्र की राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को अपनी दृष्टि के अनुसार बुरे (या भले ही) इरादों से बदल डालना चाहा है, तो अक्सर परिणाम कड़वे ही नहीं, अनेक बार तबाह कर देने वाले भी होते हैं।

प्राचीन काल और मध्य युग में बाहरी शक्तियों के वर्चस्व के ऐसे तमाम प्रसंग हम जानते हैं, औद्योगिक क्रांति के बाद यूरोपीय विस्तारवाद और साम्राज्यवाद के सबसे ज़्यादा लुटने वाले शिकारों में हम ख़ुद शामिल थे और सांस्कृतिक उपनिवेशवाद से हम अब भी ग्रस्त हैं, जैसे प्रतिक्रियावादी और विभाजनकारी पुरोगामी शक्तियों से।

दूसरे विश्वयुद्ध में हिटलर द्वारा यहूदियों का जनसंहार उस भयावह घटनाक्रम की सबसे वीभत्स और थर्रा देने वाली श्रंखला थी। यहूदियों के प्रति ईसाई संसार की नाराज़गी बहुत पुरानी है और उनके प्रति दुर्भावना का एक परिवेश पहले से ही था। पर विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका, ब्रिटेन और उनकी साथी शक्तियों ने जो समाधान निकाला, फ़िलिस्तीन में यहूदी राष्ट्र का बाहर से आरोपण, उससे अन्याय और दमन का जो चक्र चला , उसके दुष्परिणाम समूची दुनिया अब भी भुगत ही नहीं रही है, बार-बार यह ज़ख़्म और गहरा और जटिल होता जाता है। फ़िलिस्तीनी लोग पश्चिम एशिया के सबसे खुले और प्रगतिशील समुदायों में थे। आज वह सच्चाई खो गई है।

ईरान, कोरिया, वियतनाम, इराक़, सीरिया - ये एशिया के ही देश हैं, जहां पश्चिमी शक्तियों की दखलंदाज़ी ने लोगों के लिये बेहद लम्बी यंत्रणा और तबाही तय कर दी (अफ़्रीका और दक्षिण अमेरिका में ढेर सारे और उदाहरण मिल जाएंगे)। यहां लोकतंत्र का 'निर्यात' हास्यास्पद ही नहीं, पूर्णतः निष्फल रहा (हमेशा इरादे उसके होते भी नहीं थे, कहा चाहे जो गया हो), अनेक बार तो समाज वहां से भी पीछे धकेल दिया गया, जहां तक वह इस तरह के हस्तक्षेप से पहले ख़ुद ही बढ़ चुका था।

मैं निश्चय ही यह नहीं मानता कि समूची पृथ्वी हमारा कुटुम्ब नहीं है। सर्वोत्तम भारतीय मनीषा की चेतना की विरासत और बेहतर समतावादी समाज की वैश्विक स्थापना का हमारा साझा सपना -दोनों ही हमें पूरी धरती ही नहीं, सारी सृष्टि के अनिवार्यतः सम्बद्धता से स्पंदित होने का संदेश देते हैं। पर यह भी उतना ही सच मालूम होता है कि अभी जैसा विश्व है, उसमें बेहतर कल की ओर यात्रा में हर देश और हर समाज को अपनी ही युक्तियाँ जुटानी और इस्तेमाल करनी पड़ती हैं। बाहर से स्नेह और समर्थन लिया जा सकता है, पर बुनियादी लड़ाई ख़ुद ही लड़नी होती है।

वरना दारुण त्रासदी घटती है, जैसे अभी अफ़ग़ानिस्तान में घट रही है और मैं एक साहित्य-संस्कृति कर्मी ही नहीं, दो बेटियों के पिता के तौर पर भी उस देश पर और वहां की महिलाओं पर घिर आए डरावने अंधेरे से बेचैन छटपटाता हुआ चीखना चाहता हूं। वह देश जहां की एक बच्ची से कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर अपनी महान कथा 'काबुलीवाला' में नाता जोड़ गए हैं।

Saturday, August 15, 2020

"मन हो निर्भय जहां'

दो वर्ष पहले स्वतंत्रता दिवस पर अपने शुभकामना संदेश में मैंने कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की अमर रचना का यह अंश उद्धृत किया था-

"मन हो निर्भय जहां,
ज्ञान मुक्त हो जहां,
ऊंचा हो शीष जहां,
भारत को उसी स्वर्ग में तुम जाग्रत करो।"

कविगुरु की यह कविता आज और भी प्रासंगिक हो उठी है। इतनी तरह के भय, इतनी आशंकायें, इतने उलझे सवाल आज हमें, हमारे देश को, समूची दुनिया को घेरे हुए हैं। दूरियां सर्वव्यापी हो गई हैं। अस्तित्व और गरिमा पर, जीवन और आजीविका पर, स्नेह और अपनेपन और एकजुटता पर इतने प्रश्नचिह्न लगे हुए हैं, चेतना और संवेदना इस क़दर खुरची जा रही हैं कि भय से मुक्ति, शीष ऊंचा कर पाने का स्वाभिमान और ज्ञान की निर्झर मुक्त धारा के सभी तक पहुंच पाने का वह विराट और आत्मीय आदर्श आज और भी अनिवार्य हो उठा है। मनुष्यता लड़ेगी मानव मूल्यों को बचाने और सहेजने के लिये, हर तरह के शोषण को समाप्त कर न्याय, समता और सबके भाईचारे को हासिल करने और बनाए रखने के लिये।

74वें स्वतंत्रता दिवस के मंगलमय अवसर पर सभी स्वाधीनता सेनानियों, उनके संकल्पों और बेहतर भारत के उनके सपने को नमन। आप सब मित्रों को सभी स्वजनों-परिजनों सहित बहुत-बहुत मुबारकबाद और अशेष शुभकामनायें। 

Wednesday, August 12, 2020

जाना 'राहत' का

कल 11 अगस्त को फिर एक बहुत बुरी ख़बर आई। अज़ीम तरक़्क़ीपसंद शायर राहत इंदौरी कोरोनाग्रस्त थे और दिल के दौरे से कल उनके गृहनगर इंदौर के एक अस्पताल में उनका इंतक़ाल हो गया। उनकी लोकप्रियता भाषायी सीमाओं में क़ैद नहीं थी और इसका प्रमाण उस शोक की लहर में मिलता है, जो कल से सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर दिखाई दे रही है।

जनाब राहत इंदौरी साहब को पढ़ने और मीडिया पर देखने-सुनने के मौक़े तो बहुत से आए, पर रूबरू उनका क़लाम सुनने का अवसर 1986 में छतरपुर (मध्य प्रदेश) में मिला था। अगस्त, 1986 में आकाशवाणी, छतरपुर की स्थापना के दस वर्ष पूरे हुए थे और तत्कालीन कार्यक्रम प्रमुख श्री बांकेनन्दन प्रसाद सिन्हा ने 'दशक दर्पण' शीर्षक से लगातार सात दिनों तक मंचीय कार्यक्रमों के आयोजन का निर्णय किया - कवि सम्मेलन, मुशायरा, बुन्देली कवि सम्मेलन, शास्त्रीय, सुगम और लोक संगीत सभायें तथा 'युववाणी' का मंचीय कार्यक्रम। मुशायरे में राहत साहब भी पधारे थे। निज़ामत उनसे ही कराने का विचार सिन्हा जी को मुशायरा शुरू होने के कुछ पहले आया। बाक़ी शोअरा होटल से कार्यक्रम स्थल पर आ चुके थे, पर राहत साहब नहीं आए थे और अब उनका शुरू से मौजूद रहना ज़रूरी था। सिन्हा जी ने मुझे भेजा कि मैं होटल से उन्हें साथ लिवा लाऊं और संचालन के लिये राज़ी भी कर लूं। ख़ैर, मैं पहुंचा तो वे अण्डों और पराठों का नाश्ता कर रहे थे। कहा, आप भी लीजिए। मैंने माफ़ी मांगी और कहा कि मुशायरा शुरू होने के पहले उन्हें वहां पहुंचना ही है, क्योंकि निज़ामत उन्हें ही करनी है। बोले, ये सब फ़ालतू काम मैं नहीं करता। किसी तरह उन्हें मनाया और वक़्त पर पहुंच कर मुशायरा शुरू भी हो गया। राहत साहब ने बेहतरीन संचालन किया, पर जब आख़िरी शायर के पहले उन्हें अपना क़लाम पेश करने की दावत दी गई, तो पहला वाक्य उन्होंने यह कहा - रेडियो वालों के लिहाज़ में अब तक मैं यह दोयम दर्ज़े का काम कर रहा था, अब कुछ देर अपनी पसंद का असली काम करूंगा। और फिर, जैसा कहते हैं, उन्होंने मुशायरा लूट लिया। उनकी शायरी बेहतरीन कथ्य और अंदाज़े-बयां की शायरी है और इसीलिये तहत में सादगी से पढ़ कर वे तरन्नुम वालों पर भारी पड़ते थे। इस स्मरण का अंत मुझे बहुत पसंद उनके उस शेर से कर रहा हूं, जो पहली बार मैंने छतरपुर के उसी मुशायरे में सुना था।

"कभी दिमाग़ कभी दिल कभी नज़र में रहो,
ये सब तुम्हारे ही घर हैं किसी भी घर में रहो।"

सच, राहत इंदौरी साहब उन तमाम घरों में बने रहेंगे, जो हमारी दुनिया को बेहतर बनाने के लिये उनकी कविता ने रचे हैं। विनम्र श्रद्धांजलि।

Monday, August 10, 2020

परसाई जी के बाद पच्चीस बरस

आज 10 अगस्त को हिन्दी में व्यंग्य के सर्वाधिक समर्थ हस्ताक्षर हरिशंकर परसाई जी की पुण्यतिथि है। उनका देहावसान 10 अगस्त, 1995 को जबलपुर में नेपियर टाउन स्थित उनके आवास पर हुआ था, जहां वे अपनी छोटी बहन और उनके बच्चों के साथ रहते थे। परसाई जी ने स्वयं विवाह नहीं किया था और उसका मुख्य कारण हम लोग यही जानते हैं कि कम उम्र में उनकी इन बहन के पति का निधन हो गया था और उसके बाद उनकी तथा उनकी संतानों की ज़िम्मेदारी परसाई जी ने उठा ली थी, जो जीवनपर्यन्त चली। एक विचित्र और कारुणिक संयोग यह था कि 10 अगस्त, 1995 को रक्षाबंधन का पर्व था।

मैं 1994 में जबलपुर से स्थानांतरित हो कर जगदलपुर चला गया था, पर पर्व-त्योहार पर जबलपुर आना हो ही जाता था। रक्षाबंधन पर कई घरों में जाना होता था, जहां कहीं मेरी मुंहबोली बहनें मुझे राखी बांधती थीं और कई घरों में मेरी पत्नी और दोनों नन्ही बेटियां अपने मुंहबोले भाइयों को राखी बांधती थीं। उस दिन मेरे स्कूटर पर हमारा परिवार लगभग नगर परिक्रमा ही कर लिया करता था।

जगदलपुर से जबलपुर की बरास्ते रायपुर मेरी वह यात्रा रात्रि जागरण के साथ भोर में सम्पन्न हुई थी और कुछ देर कमर सीधी कर लेने के इरादे से मैं लेटा तो पत्नी से कहा कि लगभग 11 बजे जगा देना, ताकि राखी परिक्रमा शुरू हो सके। सो जब लगभग साढ़े आठ बजे ही जगाया गया, तो कुछ खीझ ज़ाहिर की। पत्नी ने गम्भीर स्वर में कहा कि अभी-अभी प्रभात जी (प्रभात वर्मा, जो आकाशवाणी, जबलपुर में वरिष्ठ उद्घोषक थे) का फ़ोन यह बताने के लिये आया था कि परसाई जी नहीं रहे।

तुरत-फुरत तैयार हो परसाई जी के घर पहुंचा। बहुत बार जा चुका था, पर उस दिन लगा कि जैसे एक लगभग अनजान से घर में जा रहा हूं। जिस बैठक कक्ष में परसाई जी अपने बिस्तर पर कभी बैठे, कभी अधलेटे और कभी लेटे-लेटे ही मिलते थे और वह सब कुछ कहते-सुनते थे, जिसने हमारी चेतना और दृष्टि को गढ़ा था, वहीं उनके पार्थिव शरीर को रखा गया था। शव-यात्रा की तैयारी शुरू हो चुकी थी। वहां बहुत से अपने बड़े-छोटे और हमउम्र साथी मिले। सन्नाटे में हमारी आपसी फुसफुसाहटें हमें ही बीच-बीच में चौंका देती थीं।

पर वहां अनेक ऐसे और काफ़ी महत्वपूर्ण से लोग संचालक मुद्रा में मौजूद थे, जिन्हें वहां कभी देखना तुरन्त याद नहीं आ रहा था। धीरे-धीरे समझ में आया कि ये ज़िला प्रशासन के अधिकारीगण थे और ये इसलिये वहां थे कि परसाई जी का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किए जाने की मध्य प्रदेश शासन की ओर से घोषणा हो चुकी थी और ये लोग उसी का बन्दोबस्त देखने आए थे। उसके बाद जैसे वहां एक चुपचाप परायापन सा व्यापता महसूस होने लगा।

शव-यात्रा दोपहरी ढलने के कुछ पहले नर्मदा तट पहुंची - सम्भवत: ग्वारी घाट के पास (जबलपुर में नर्मदा के प्रमुख घाटों के नाम ग्वारी घाट, तिलवारा घाट, जिलहरी घाट आदि हैं)। मैं अपने स्कूटर से गया, जिसकी परिक्रमा का पथ उस दिन छिन्न-भिन्न हो गया था, जैसे और भी बहुत कुछ। चिता सजी, मध्य प्रदेश पुलिस के जवानों ने सलामी दी और अग्नि प्रज्ज्वलित हो उठी। धरती-आकाश धुंए से जुड़ गए। हम सब बहुत थके, बहुत टूटे-हारे चिता के आसपास बिखरे-बैठे रहे। मैंने कड़वाती आंखें बंद कर लीं और एक दु:स्वप्न भरी अधजगी नींद में डूबने-उतराने लगा। हम सब के वैचारिक अभिभावक परसाई जी चले गए। जब उनकी इतनी ज़रूरत थी। कितनी सूनी, कितनी ख़ाली हो गई थी हमारी दुनिया!

कि एक संबोधन सा सुन कर चेतना लौटी। देखा, एक उत्साही नौजवान हाथ में माइक लिए मेरे पास खड़ा है और मुझसे अनुरोध कर रहा है कि मैं सिटी-केबल के लिये अपनी श्रद्धांजलि रिकॉर्ड करा दूं। उसके पीछे उसका कैमरामैन बहुत गम्भीरता और महत्ता के साथ सन्नद्ध था। मैं कुछ अचकचाया तो मुझे बताया गया कि कई लोग तो रिकॉर्ड करा भी चुके थे और कुछ ख़ास-ख़ास लोगों से ही यह अनुरोध किया जा रहा था। मैं काफ़ी चैतन्य हो उठा और कुछ कहा भी। एक शरमाता सा ख़्याल भीतर था कि बाल बहुत बिखरे हुए तो नहीं और चेहरा बहुत ज़्यादा सूखा-सा तो नहीं। फिर लगा कि अगर हाल बेहाल दिख रहा है, तो अवसर के उपयुक्त ही है।

इस बीच चिता परिक्रमा शुरू हो गई थी। फिर एक संक्षिप्त शोक-सभा हुई, जिसमें एक-दो लोग बोले और फिर शासन के प्रतिनिधि अधिकारी ने एक बयान अटकते हुए और कुछ ग़लत उच्चारणों के साथ पढ़ा, जिसमें 'महान साहित्यकार पद्मश्री श्री हरिशंकर परसाई' के लेखन की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी। अचानक मुझे याद आया कि परसाई जी ने अपने एक निबन्ध 'ज़िंदगी और मौत का दस्तावेज़ (वसीयतनामा फ़रमाइशी)' में अपनी मृत्यु के बाद के सम्भावित तमाशे का अद्भुत वर्णन किया था। मेरे बदन में बिजली सी दौड़ गई। लगा - देखो, शुरू हो गया।

इस बीच वहां सूचना दी गई कि औपचारिक विधिवत शोकसभा फ़लां-फ़लां तारीख को फ़लां-फ़लां जगह इतने बजे होगी। सभी लोग वहां भी पधारें और अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करें। हम सब लोग लौटने के लिये अपने-अपने साधन की ओर खिसकने लगे। कि भागा हुआ सिटी-केबल वाला युवा आया और बताया कि 'श्रद्धांजलि कार्यक्रम' रात इतने-इतने बजे टेलीकास्ट होगा। अनेक लोग रुचिपूर्वक रुक गए। कुछ ने प्रसारण समय की फिर पुष्टि कराई। मेरा भी हाथ अपने बालों को कुछ संवारने की मुद्रा में उठने लगा और एक सहमी हुई पुलक भी थरथराने लगी। फिर ख़ुद पर कुछ गुस्सा आया, कुछ शर्म आई।

और तभी समझ में आ गया कि परसाई जी कहीं नहीं गए हैं, हमेशा साथ रहेंगे। वे बाहर-भीतर के सभी विद्रूप उजागर करते रहेंगे और तमाम ज़रूरी लड़ाइयों की समझ और तैयारी में मदद करते रहेंगे। हां, जो थप्पड़ लगाए जाने हैं, ख़ास कर अपने ही गालों पर, उनके लिये अब ख़ुद की ही हथेलियां इस्तेमाल करनी होंगी।

आज 25 बरस बीत गए।

Friday, July 31, 2020

कलम के सिपाही प्रेमचंद

आज हिंदी के अब तक के सबसे बड़े कथाकार प्रेमचंद की 140वीं जयंती है. 8 अक्टूबर, 1936 को कलम का यह अद्वितीय और जांबाज़ सिपाही इस दुनिया को छोड़ गया. उनकी शवयात्रा में गिने-चुने लोग ही शामिल थे और किसी राहगीर के सवाल कि यह किसकी अर्थी है, का किसी दूसरे ने यों जवाब दिया था - शायद किसी मुदर्रिस (शिक्षक) की. शिक्षक तो प्रेमचंद थे ही, हैं ही, जैसा कि हर महान साहित्यकार होता है. पर उनकी शिक्षा वर्तमान और यथार्थ को जानने-समझने की ही नहीं, उसे बेहतरी की ओर ले जाने के लिये लोकमानस को तैयार करने की भी थी. अप्रैल, 1936 में लखनऊ में संपन्न प्रगतिशील लेखक संघ के पहले राष्ट्रीय सम्मलेन में अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा था कि साहित्यकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है. उन्होंने यह भी कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल है.

प्रेमचंद के लेखकीय व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं और वे जनवादी साहित्य में विश्वास रखने वालों के लिये प्रेरणा के अक्षय स्रोत हैं. मुझे एक बात जो कभी चमत्कृत करना बंद नहीं करती, वह यह है कि बड़ी सीधी-सरल किस्सागोई शैली से आरम्भ करने के बाद वे लगातार लिखते-लिखते बेहतर होते गए. वे दुनिया के उन बहुत कम लेखकों में है, जिनकी अंतिम रचनायें उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनायें हैं. 'गोदान' और 'कफ़न' इसका प्रमाण हैं (उपन्यास 'मंगलसूत्र' अधूरा रह गया था). अमूमन जो लोग लम्बे समय तक लिखते हैं और ख़ूब लिखते हैं, उनके रचनात्मक आवेग और कौशल में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं. पर प्रेमचंद की रचना-यात्रा की एक ही दिशा थी - ऊर्ध्वमुखी. और वे केवल 56 साल की उम्र में चले गए थे. और रहते तो न जाने कौन-कौन सी और भी नयी ऊंचाइयां और गहराइयाँ हासिल कर के जाते.

प्रेमचंद के रचना-संसार की बहुत चर्चा दुनिया भर में हुई है. हिंदी के वे निस्संदेह सबसे अधिक पढ़े गए गद्य-लेखक हैं. संसार की अनेक भाषाओं में उनकी कृतियों के अनुवाद हुए हैं. पर अभी उनकी कई रचनाओं पर और ज़्यादा ध्यान दिए जाने की गुंजाइश है. ऐसा कई बार होता है (और प्रेमचंद के साथ भी हुआ है) कि विपुल मात्रा में सिरजने वाले की कुछ कृतियों पर ही बार-बार ध्यान जाए, बात हो और उनका लिखा बाक़ी काफ़ी कुछ अपेक्षाकृत अलक्षित ही रह जाए. इस मुद्दे पर भविष्य में और लिखूंगा.

आज मेरे लिये प्रेमचंद जयंती एक और रोमांच ले कर आई. मैं जन्म, पैतृक स्थान, शिक्षा आदि के नाते से उत्तर प्रदेश का हूँ, पर मेरे लेखकीय व्यक्तित्व का परिष्कार मध्य प्रदेश में हुआ. मेरी प्रगतिशील लेखक संघ के साथ संलग्नता भी 1979 में जबलपुर से शुरू हुई थी. हरिशंकर परसाई (जिनका अद्भुत निबंध 'प्रेमचंद के फटे जूते' आज भी हिला जाता है), ज्ञानरंजन, मलय जी जैसी विभूतियों के मार्गदर्शन में यह यात्रा आगे बढ़ी. मध्य प्रदेश (और अब जिसका एक भाग छत्तीसगढ़ बन चुका है) के विभिन्न स्थानों पर रहते हुए यह सम्बन्ध दृढ़तर होता गया. फिर भौगोलिक दूरी बहुत कुछ छीन ले गई. आज फिर से मैं मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के आयोजन में सहभागिता का सौभाग्य पा सका, जब प्रेमचंद जयंती के अवसर पर आयोजित ऑनलाइन समागम में मैं जुड़ सका. यह राजेंद्र शर्मा जी और शैलेन्द्र शैली जी के सौजन्य से संभव हो पाया. मुझे लगा, मैं वापस घर पहुँच गया हूँ.

क्या इस वापसी के बाद बहुप्रतीक्षित नयी शुरुआतें होंगी? पुरोधा प्रेमचंद का आशीर्वाद चाहिए.

Friday, June 26, 2020

45 साल पहले

आज बहुत लोग याद कर रहे हैं कि 45 साल पहले 25 और 26 जून, 1975 की दरमियानी रात में आपातकाल लागू होने के समय वे कहां थे और क्या कर रहे थे। मैं तब बनारस में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बी.एस.सी. (अंतिम वर्ष) की परीक्षा (सत्र विलम्बित था) दे चुका था या देने को था, पर ग्रीष्मावकाश में अपने ननिहाल दिल्ली आया था। ननिहाल पंजाबी बाग में थी। दिल्ली की वह मेरी पहली स्वतंत्र यात्रा थी और उसके कई रोमांचक पल स्मृति में रचे-बसे हुए हैं। पर देश में चल रहे लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन (जिससे हम भी उद्वेलित थे) से उपजी बेचैनी आसपास लगातार महसूस हो रही थी। सम्भवत: 12 जून के आसपास इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा का वह प्रसिद्ध निर्णय आया, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी के लोकसभा निर्वाचन को अवैध घोषित किया गया था। उसके एक-दो दिन बाद मैं और मेरे कुछ ममेरे-मौसेरे भाई-बहन सुबह के शो में चल रही बलराज साहनी की कालजयी फ़िल्म 'गर्म हवा' देखने घर से निकले, पर उस दिन जा नहीं सके, क्योंकि पता चला कि इंदिरा जी वाले फ़ैसले के विरोध में बस सेवा कर्मी हड़ताल पर थे और ऑटो आदि भी नहीं चल रहे थे। (वह फ़िल्म बाद में मैंने अकेले ही जा कर देखी।)
बहरहाल, कुछ दिन बाद मैं अपनी सबसे बड़ी मौसी जी के पास हाथरस गया, जहां अच्छा-ख़ासा बुख़ार चढ़ आया, तो कई दिन वहीं रहना पड़ा। बीमारी में दीन-दुनिया की ख़बर भी कुछ कम रही। उसके बाद मैं अपनी दूसरी ननिहाल कम्पिल के लिये रवाना हुआ। (कम्पिल दरअसल महाभारतकालीन काम्पिल्य नगरी है, जो द्रौपदी के पिता राजा द्रुपद की राजधानी थी और जहां अग्निकुण्ड से द्रौपदी का जन्म हुआ था, यह वहां के लोगों की दृढ़ मान्यता है)।
मैं 25 जून की रात हाथरस से किसी ट्रेन से सफ़र पर चला। शायिका आरक्षण वगैरह तो हम लोगों के लिये तब लगभग अनजानी बात थी। गर्मियों में छुट्टियों और शादी-ब्याह की वजह से रेलगाड़ियों में भीड़ ज़्यादा ही होती है। उस गाड़ी से कासगंज तक जा कर कायमगंज के लिये ट्रेन बदलनी थी, जहाँ से कम्पिल की दूरी तब शाही सवारी इक्के में तय की जाती थी। तो भीड़ ऐसी थी कि हाथरस से कासगंज तक कहीं टिकने की जगह भी नहीं मिली। खड़े-खड़े हाल पस्त हो गया। अलस्सुबह गाड़ी कासगंज पहुंची। अगली गाड़ी आने में घण्टा-डेढ़ घण्टा बाक़ी था। बुख़ार के बाद की कमज़ोरी, रात्रि जागरण और घण्टों खड़े रह कर शरीर और मन चूर हो रहे थे। मैं प्लेटफ़ॉर्म पर एक बेंच पर आंखें मूंद कर बैठ गया।
कि तभी अख़बारों के हॉकर वहां आ पहुंचे और देश में आपातकाल लागू हो चुकने का उद्घोष करने लगे। जैसे तीर खाया जीव छटपटाता है, वैसे ही आत्मचेतना जैसे तड़पने लगी। झपट कर अख़बार ख़रीदा और पढ़ गया। याद है कि उत्तेजनावश अख़बार पकड़े हाथ थरथरा रहे थे और उसका कागज़ बड़ा अजीब और अजनबी लग रहा था। कासगंज के रेलवे स्टेशन की वह भोर जैसे जल उठी। थकान से लस्त था, पर आंखों और मन की कड़वाहट और एक अजीब सी सनसनी में नींद बहुत दूर जा छुपी
इसके बाद वह यात्रा आगे बढ़ी, पूरी हुई। आपातकाल के दौरान क्या कुछ सोचा-देखा-महसूस किया और प्रतिरोध में एक विद्यार्थी के रूप में ही अपनी छोटी सी भूमिका निभाने में क्या किया, फिर कैसे 'दूसरी आज़ादी' आई, उसका क्या हश्र हुआ, मैं विचार और सम्वेदना के कितने सोपानों से गुज़रा, आज का क्या हाल है, उसका कितना मलाल है - ये सब बाद की बातें हैं। अभी कासगंज रेलवे स्टेशन पर 26 जून, 1975 की वह भोर ही स्मृति-पटल पर कौंध रही है, जब बहुत सारी दूसरी चीज़ों की तरह सुबह की पहली चाय भी बिल्कुल कसैली हो गई थी।

Sunday, June 21, 2020

ओ पिता

वैसे मैं बाज़ार द्वारा थोपे गए भांति-भांति के 'दिवस' नहीं मनाता, बल्कि या तो उन पर कुढ़ता हूं या उनका मज़ाक उड़ाता हूं। पर आज न जाने कैसे यह दिन चेतना में सुगबुगा रहा है। शायद छोटे भाई संजीव के एक संदेश से यह हुआ, या भतीजे असित के दो संदेशों से। हो सकता है, कभी अपने पिता की स्मृतियों और उनके साथ अपने रिश्ते पर विस्तार से कुछ कहूं। अभी उन पर रची अपनी दो पुरानी कवितायें साझा कर रहा हूं, जो आज मुझे भी बार-बार याद आ रही हैं।

ओ पिता

तुम्हारे पीछे-पीछे
इस संसार में आया
ओ पिता
तुमने जिधर देखा
तुमको देख कर
उधर देखा
तुमने उंगली पकड़ाई
तुमने खेल सिखाए
तुम साथ-साथ दौड़े भी
काफ़ी दूर तक

तुम्हारा बहुत सा दाय
दिया मैंने
पढ़ा-सीखा
बोला-लिखा
प्रेम किए
ठोकरें खाईं
गिरा धड़ाम-भड़ाम

दायित्व निभाए
जो अधूरे ही रहे
लालसा में
वासना में
काटता गया
जीवन

तुमसे आगे गया
तुमसे पीछे रहा
तुम सा ही रहा
पर तुम सा नहीं रहा

पिता
तुमने और मैंने
मिल कर
कितना कुछ
बिगाड़ा
कितना कुछ
रच डाला।

मुक़दमा

तब पिता का
बिड़ला से
मुक़दमा जारी था
और हम
अक्सर मिलते थे
उनसे अपने मन की
बहुत सी बातें भी
कह लेता था मैं
सुनते थे पिता
उन्हीं दिनों में
भयानक अभाव के बीच
जाने कैसे
अपनी ही ओर से
'दास कैपिटल' के तीनों खण्ड
ख़रीद कर जैसे भेंट में
मुझको दिए थे उन्हीं पिता ने
जो रोज़ बिना नागा
देर तक पूजा करते थे
और मुझको लगता था
जैसे मंत्रोच्चार के बीच-बीच में
बिड़ला भी आता था
आसुरी शत्रु जैसा

जाने कैसे
बीत गए इतने सारे बरसों में
एक बार भी
पूरी नहीं पढ़ी जा सकी
'दास कैपिटल'
पिता ने तो छोड़ दी थी पूजा
मैं करने लगा हूं
और बालपन में सुने मंत्रों से बाहर का
नहीं है कोई देवता या दैत्य या दानव
मेरी पूजा में
क्या पूरा हो गया है
मुक़दमा?