कल बीते देश के पचहत्तरवें स्वतंत्रता दिवस की कुछ गहमागहमी के बीच और साथ-साथ अफ़ग़ानिस्तान से डरावनी ख़बरों का सिलसिला बना रहा और सांझ ढलते-ढलते वहां के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी के देश छोड़ कर निकलने और काबुल पर तालिबान का नियन्त्रण है जाने के समाचार आने लगे। अफ़ग़ान लोगों और विशेषकर स्त्रियों के लिये बेहद तक़लीफ़ भरे दिनों की वापसी हो चुकी है।
बीते कुछ दशकों में जो दुनिया की अकेली महाशक्ति की भूमिका निभाने को ले कर लगभग उन्मत्त रहा है, वह संयुक्त राज्य अमेरिका एक बार फिर चीज़ों को उलट-पलट कर और काफ़ी कुछ बरबाद कर के वहां से निकल चुका है। हालांकि सच्चाई यह भी है कि अफ़ग़ानिस्तान की बदहाली की यह कहानी अकेले अमेरिका ने नहीं लिखी। इसमें पूर्व सोवियत संघ की भीषण रणनीतिक भूलें भी गुंथी हुई हैं, नाटो देशों की अमेरिका से कुछ ही कम संलिप्तता है, पाकिस्तान की आत्मघाती कुटिलता है और अफ़ग़ानिस्तान के अपने समाज की सामंती समझ और एक प्रभावशाली वर्ग की धर्मान्धता तो एक प्रमुख कारक है ही।
पर गहरी उदासी में गिरफ़्तार मैं जब इस बारे में सोचता हूं, तो साफ़ नज़र आता है कि दुनिया में जहां-जहां बाहरी शक्तियों ने किसी समाज या क्षेत्र की राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को अपनी दृष्टि के अनुसार बुरे (या भले ही) इरादों से बदल डालना चाहा है, तो अक्सर परिणाम कड़वे ही नहीं, अनेक बार तबाह कर देने वाले भी होते हैं।
प्राचीन काल और मध्य युग में बाहरी शक्तियों के वर्चस्व के ऐसे तमाम प्रसंग हम जानते हैं, औद्योगिक क्रांति के बाद यूरोपीय विस्तारवाद और साम्राज्यवाद के सबसे ज़्यादा लुटने वाले शिकारों में हम ख़ुद शामिल थे और सांस्कृतिक उपनिवेशवाद से हम अब भी ग्रस्त हैं, जैसे प्रतिक्रियावादी और विभाजनकारी पुरोगामी शक्तियों से।
दूसरे विश्वयुद्ध में हिटलर द्वारा यहूदियों का जनसंहार उस भयावह घटनाक्रम की सबसे वीभत्स और थर्रा देने वाली श्रंखला थी। यहूदियों के प्रति ईसाई संसार की नाराज़गी बहुत पुरानी है और उनके प्रति दुर्भावना का एक परिवेश पहले से ही था। पर विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका, ब्रिटेन और उनकी साथी शक्तियों ने जो समाधान निकाला, फ़िलिस्तीन में यहूदी राष्ट्र का बाहर से आरोपण, उससे अन्याय और दमन का जो चक्र चला , उसके दुष्परिणाम समूची दुनिया अब भी भुगत ही नहीं रही है, बार-बार यह ज़ख़्म और गहरा और जटिल होता जाता है। फ़िलिस्तीनी लोग पश्चिम एशिया के सबसे खुले और प्रगतिशील समुदायों में थे। आज वह सच्चाई खो गई है।
ईरान, कोरिया, वियतनाम, इराक़, सीरिया - ये एशिया के ही देश हैं, जहां पश्चिमी शक्तियों की दखलंदाज़ी ने लोगों के लिये बेहद लम्बी यंत्रणा और तबाही तय कर दी (अफ़्रीका और दक्षिण अमेरिका में ढेर सारे और उदाहरण मिल जाएंगे)। यहां लोकतंत्र का 'निर्यात' हास्यास्पद ही नहीं, पूर्णतः निष्फल रहा (हमेशा इरादे उसके होते भी नहीं थे, कहा चाहे जो गया हो), अनेक बार तो समाज वहां से भी पीछे धकेल दिया गया, जहां तक वह इस तरह के हस्तक्षेप से पहले ख़ुद ही बढ़ चुका था।
मैं निश्चय ही यह नहीं मानता कि समूची पृथ्वी हमारा कुटुम्ब नहीं है। सर्वोत्तम भारतीय मनीषा की चेतना की विरासत और बेहतर समतावादी समाज की वैश्विक स्थापना का हमारा साझा सपना -दोनों ही हमें पूरी धरती ही नहीं, सारी सृष्टि के अनिवार्यतः सम्बद्धता से स्पंदित होने का संदेश देते हैं। पर यह भी उतना ही सच मालूम होता है कि अभी जैसा विश्व है, उसमें बेहतर कल की ओर यात्रा में हर देश और हर समाज को अपनी ही युक्तियाँ जुटानी और इस्तेमाल करनी पड़ती हैं। बाहर से स्नेह और समर्थन लिया जा सकता है, पर बुनियादी लड़ाई ख़ुद ही लड़नी होती है।
वरना दारुण त्रासदी घटती है, जैसे अभी अफ़ग़ानिस्तान में घट रही है और मैं एक साहित्य-संस्कृति कर्मी ही नहीं, दो बेटियों के पिता के तौर पर भी उस देश पर और वहां की महिलाओं पर घिर आए डरावने अंधेरे से बेचैन छटपटाता हुआ चीखना चाहता हूं। वह देश जहां की एक बच्ची से कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर अपनी महान कथा 'काबुलीवाला' में नाता जोड़ गए हैं।