Friday, June 26, 2020

45 साल पहले

आज बहुत लोग याद कर रहे हैं कि 45 साल पहले 25 और 26 जून, 1975 की दरमियानी रात में आपातकाल लागू होने के समय वे कहां थे और क्या कर रहे थे। मैं तब बनारस में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बी.एस.सी. (अंतिम वर्ष) की परीक्षा (सत्र विलम्बित था) दे चुका था या देने को था, पर ग्रीष्मावकाश में अपने ननिहाल दिल्ली आया था। ननिहाल पंजाबी बाग में थी। दिल्ली की वह मेरी पहली स्वतंत्र यात्रा थी और उसके कई रोमांचक पल स्मृति में रचे-बसे हुए हैं। पर देश में चल रहे लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन (जिससे हम भी उद्वेलित थे) से उपजी बेचैनी आसपास लगातार महसूस हो रही थी। सम्भवत: 12 जून के आसपास इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा का वह प्रसिद्ध निर्णय आया, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी के लोकसभा निर्वाचन को अवैध घोषित किया गया था। उसके एक-दो दिन बाद मैं और मेरे कुछ ममेरे-मौसेरे भाई-बहन सुबह के शो में चल रही बलराज साहनी की कालजयी फ़िल्म 'गर्म हवा' देखने घर से निकले, पर उस दिन जा नहीं सके, क्योंकि पता चला कि इंदिरा जी वाले फ़ैसले के विरोध में बस सेवा कर्मी हड़ताल पर थे और ऑटो आदि भी नहीं चल रहे थे। (वह फ़िल्म बाद में मैंने अकेले ही जा कर देखी।)
बहरहाल, कुछ दिन बाद मैं अपनी सबसे बड़ी मौसी जी के पास हाथरस गया, जहां अच्छा-ख़ासा बुख़ार चढ़ आया, तो कई दिन वहीं रहना पड़ा। बीमारी में दीन-दुनिया की ख़बर भी कुछ कम रही। उसके बाद मैं अपनी दूसरी ननिहाल कम्पिल के लिये रवाना हुआ। (कम्पिल दरअसल महाभारतकालीन काम्पिल्य नगरी है, जो द्रौपदी के पिता राजा द्रुपद की राजधानी थी और जहां अग्निकुण्ड से द्रौपदी का जन्म हुआ था, यह वहां के लोगों की दृढ़ मान्यता है)।
मैं 25 जून की रात हाथरस से किसी ट्रेन से सफ़र पर चला। शायिका आरक्षण वगैरह तो हम लोगों के लिये तब लगभग अनजानी बात थी। गर्मियों में छुट्टियों और शादी-ब्याह की वजह से रेलगाड़ियों में भीड़ ज़्यादा ही होती है। उस गाड़ी से कासगंज तक जा कर कायमगंज के लिये ट्रेन बदलनी थी, जहाँ से कम्पिल की दूरी तब शाही सवारी इक्के में तय की जाती थी। तो भीड़ ऐसी थी कि हाथरस से कासगंज तक कहीं टिकने की जगह भी नहीं मिली। खड़े-खड़े हाल पस्त हो गया। अलस्सुबह गाड़ी कासगंज पहुंची। अगली गाड़ी आने में घण्टा-डेढ़ घण्टा बाक़ी था। बुख़ार के बाद की कमज़ोरी, रात्रि जागरण और घण्टों खड़े रह कर शरीर और मन चूर हो रहे थे। मैं प्लेटफ़ॉर्म पर एक बेंच पर आंखें मूंद कर बैठ गया।
कि तभी अख़बारों के हॉकर वहां आ पहुंचे और देश में आपातकाल लागू हो चुकने का उद्घोष करने लगे। जैसे तीर खाया जीव छटपटाता है, वैसे ही आत्मचेतना जैसे तड़पने लगी। झपट कर अख़बार ख़रीदा और पढ़ गया। याद है कि उत्तेजनावश अख़बार पकड़े हाथ थरथरा रहे थे और उसका कागज़ बड़ा अजीब और अजनबी लग रहा था। कासगंज के रेलवे स्टेशन की वह भोर जैसे जल उठी। थकान से लस्त था, पर आंखों और मन की कड़वाहट और एक अजीब सी सनसनी में नींद बहुत दूर जा छुपी
इसके बाद वह यात्रा आगे बढ़ी, पूरी हुई। आपातकाल के दौरान क्या कुछ सोचा-देखा-महसूस किया और प्रतिरोध में एक विद्यार्थी के रूप में ही अपनी छोटी सी भूमिका निभाने में क्या किया, फिर कैसे 'दूसरी आज़ादी' आई, उसका क्या हश्र हुआ, मैं विचार और सम्वेदना के कितने सोपानों से गुज़रा, आज का क्या हाल है, उसका कितना मलाल है - ये सब बाद की बातें हैं। अभी कासगंज रेलवे स्टेशन पर 26 जून, 1975 की वह भोर ही स्मृति-पटल पर कौंध रही है, जब बहुत सारी दूसरी चीज़ों की तरह सुबह की पहली चाय भी बिल्कुल कसैली हो गई थी।

Sunday, June 21, 2020

ओ पिता

वैसे मैं बाज़ार द्वारा थोपे गए भांति-भांति के 'दिवस' नहीं मनाता, बल्कि या तो उन पर कुढ़ता हूं या उनका मज़ाक उड़ाता हूं। पर आज न जाने कैसे यह दिन चेतना में सुगबुगा रहा है। शायद छोटे भाई संजीव के एक संदेश से यह हुआ, या भतीजे असित के दो संदेशों से। हो सकता है, कभी अपने पिता की स्मृतियों और उनके साथ अपने रिश्ते पर विस्तार से कुछ कहूं। अभी उन पर रची अपनी दो पुरानी कवितायें साझा कर रहा हूं, जो आज मुझे भी बार-बार याद आ रही हैं।

ओ पिता

तुम्हारे पीछे-पीछे
इस संसार में आया
ओ पिता
तुमने जिधर देखा
तुमको देख कर
उधर देखा
तुमने उंगली पकड़ाई
तुमने खेल सिखाए
तुम साथ-साथ दौड़े भी
काफ़ी दूर तक

तुम्हारा बहुत सा दाय
दिया मैंने
पढ़ा-सीखा
बोला-लिखा
प्रेम किए
ठोकरें खाईं
गिरा धड़ाम-भड़ाम

दायित्व निभाए
जो अधूरे ही रहे
लालसा में
वासना में
काटता गया
जीवन

तुमसे आगे गया
तुमसे पीछे रहा
तुम सा ही रहा
पर तुम सा नहीं रहा

पिता
तुमने और मैंने
मिल कर
कितना कुछ
बिगाड़ा
कितना कुछ
रच डाला।

मुक़दमा

तब पिता का
बिड़ला से
मुक़दमा जारी था
और हम
अक्सर मिलते थे
उनसे अपने मन की
बहुत सी बातें भी
कह लेता था मैं
सुनते थे पिता
उन्हीं दिनों में
भयानक अभाव के बीच
जाने कैसे
अपनी ही ओर से
'दास कैपिटल' के तीनों खण्ड
ख़रीद कर जैसे भेंट में
मुझको दिए थे उन्हीं पिता ने
जो रोज़ बिना नागा
देर तक पूजा करते थे
और मुझको लगता था
जैसे मंत्रोच्चार के बीच-बीच में
बिड़ला भी आता था
आसुरी शत्रु जैसा

जाने कैसे
बीत गए इतने सारे बरसों में
एक बार भी
पूरी नहीं पढ़ी जा सकी
'दास कैपिटल'
पिता ने तो छोड़ दी थी पूजा
मैं करने लगा हूं
और बालपन में सुने मंत्रों से बाहर का
नहीं है कोई देवता या दैत्य या दानव
मेरी पूजा में
क्या पूरा हो गया है
मुक़दमा?