Saturday, August 15, 2020

"मन हो निर्भय जहां'

दो वर्ष पहले स्वतंत्रता दिवस पर अपने शुभकामना संदेश में मैंने कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की अमर रचना का यह अंश उद्धृत किया था-

"मन हो निर्भय जहां,
ज्ञान मुक्त हो जहां,
ऊंचा हो शीष जहां,
भारत को उसी स्वर्ग में तुम जाग्रत करो।"

कविगुरु की यह कविता आज और भी प्रासंगिक हो उठी है। इतनी तरह के भय, इतनी आशंकायें, इतने उलझे सवाल आज हमें, हमारे देश को, समूची दुनिया को घेरे हुए हैं। दूरियां सर्वव्यापी हो गई हैं। अस्तित्व और गरिमा पर, जीवन और आजीविका पर, स्नेह और अपनेपन और एकजुटता पर इतने प्रश्नचिह्न लगे हुए हैं, चेतना और संवेदना इस क़दर खुरची जा रही हैं कि भय से मुक्ति, शीष ऊंचा कर पाने का स्वाभिमान और ज्ञान की निर्झर मुक्त धारा के सभी तक पहुंच पाने का वह विराट और आत्मीय आदर्श आज और भी अनिवार्य हो उठा है। मनुष्यता लड़ेगी मानव मूल्यों को बचाने और सहेजने के लिये, हर तरह के शोषण को समाप्त कर न्याय, समता और सबके भाईचारे को हासिल करने और बनाए रखने के लिये।

74वें स्वतंत्रता दिवस के मंगलमय अवसर पर सभी स्वाधीनता सेनानियों, उनके संकल्पों और बेहतर भारत के उनके सपने को नमन। आप सब मित्रों को सभी स्वजनों-परिजनों सहित बहुत-बहुत मुबारकबाद और अशेष शुभकामनायें। 

Wednesday, August 12, 2020

जाना 'राहत' का

कल 11 अगस्त को फिर एक बहुत बुरी ख़बर आई। अज़ीम तरक़्क़ीपसंद शायर राहत इंदौरी कोरोनाग्रस्त थे और दिल के दौरे से कल उनके गृहनगर इंदौर के एक अस्पताल में उनका इंतक़ाल हो गया। उनकी लोकप्रियता भाषायी सीमाओं में क़ैद नहीं थी और इसका प्रमाण उस शोक की लहर में मिलता है, जो कल से सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर दिखाई दे रही है।

जनाब राहत इंदौरी साहब को पढ़ने और मीडिया पर देखने-सुनने के मौक़े तो बहुत से आए, पर रूबरू उनका क़लाम सुनने का अवसर 1986 में छतरपुर (मध्य प्रदेश) में मिला था। अगस्त, 1986 में आकाशवाणी, छतरपुर की स्थापना के दस वर्ष पूरे हुए थे और तत्कालीन कार्यक्रम प्रमुख श्री बांकेनन्दन प्रसाद सिन्हा ने 'दशक दर्पण' शीर्षक से लगातार सात दिनों तक मंचीय कार्यक्रमों के आयोजन का निर्णय किया - कवि सम्मेलन, मुशायरा, बुन्देली कवि सम्मेलन, शास्त्रीय, सुगम और लोक संगीत सभायें तथा 'युववाणी' का मंचीय कार्यक्रम। मुशायरे में राहत साहब भी पधारे थे। निज़ामत उनसे ही कराने का विचार सिन्हा जी को मुशायरा शुरू होने के कुछ पहले आया। बाक़ी शोअरा होटल से कार्यक्रम स्थल पर आ चुके थे, पर राहत साहब नहीं आए थे और अब उनका शुरू से मौजूद रहना ज़रूरी था। सिन्हा जी ने मुझे भेजा कि मैं होटल से उन्हें साथ लिवा लाऊं और संचालन के लिये राज़ी भी कर लूं। ख़ैर, मैं पहुंचा तो वे अण्डों और पराठों का नाश्ता कर रहे थे। कहा, आप भी लीजिए। मैंने माफ़ी मांगी और कहा कि मुशायरा शुरू होने के पहले उन्हें वहां पहुंचना ही है, क्योंकि निज़ामत उन्हें ही करनी है। बोले, ये सब फ़ालतू काम मैं नहीं करता। किसी तरह उन्हें मनाया और वक़्त पर पहुंच कर मुशायरा शुरू भी हो गया। राहत साहब ने बेहतरीन संचालन किया, पर जब आख़िरी शायर के पहले उन्हें अपना क़लाम पेश करने की दावत दी गई, तो पहला वाक्य उन्होंने यह कहा - रेडियो वालों के लिहाज़ में अब तक मैं यह दोयम दर्ज़े का काम कर रहा था, अब कुछ देर अपनी पसंद का असली काम करूंगा। और फिर, जैसा कहते हैं, उन्होंने मुशायरा लूट लिया। उनकी शायरी बेहतरीन कथ्य और अंदाज़े-बयां की शायरी है और इसीलिये तहत में सादगी से पढ़ कर वे तरन्नुम वालों पर भारी पड़ते थे। इस स्मरण का अंत मुझे बहुत पसंद उनके उस शेर से कर रहा हूं, जो पहली बार मैंने छतरपुर के उसी मुशायरे में सुना था।

"कभी दिमाग़ कभी दिल कभी नज़र में रहो,
ये सब तुम्हारे ही घर हैं किसी भी घर में रहो।"

सच, राहत इंदौरी साहब उन तमाम घरों में बने रहेंगे, जो हमारी दुनिया को बेहतर बनाने के लिये उनकी कविता ने रचे हैं। विनम्र श्रद्धांजलि।

Monday, August 10, 2020

परसाई जी के बाद पच्चीस बरस

आज 10 अगस्त को हिन्दी में व्यंग्य के सर्वाधिक समर्थ हस्ताक्षर हरिशंकर परसाई जी की पुण्यतिथि है। उनका देहावसान 10 अगस्त, 1995 को जबलपुर में नेपियर टाउन स्थित उनके आवास पर हुआ था, जहां वे अपनी छोटी बहन और उनके बच्चों के साथ रहते थे। परसाई जी ने स्वयं विवाह नहीं किया था और उसका मुख्य कारण हम लोग यही जानते हैं कि कम उम्र में उनकी इन बहन के पति का निधन हो गया था और उसके बाद उनकी तथा उनकी संतानों की ज़िम्मेदारी परसाई जी ने उठा ली थी, जो जीवनपर्यन्त चली। एक विचित्र और कारुणिक संयोग यह था कि 10 अगस्त, 1995 को रक्षाबंधन का पर्व था।

मैं 1994 में जबलपुर से स्थानांतरित हो कर जगदलपुर चला गया था, पर पर्व-त्योहार पर जबलपुर आना हो ही जाता था। रक्षाबंधन पर कई घरों में जाना होता था, जहां कहीं मेरी मुंहबोली बहनें मुझे राखी बांधती थीं और कई घरों में मेरी पत्नी और दोनों नन्ही बेटियां अपने मुंहबोले भाइयों को राखी बांधती थीं। उस दिन मेरे स्कूटर पर हमारा परिवार लगभग नगर परिक्रमा ही कर लिया करता था।

जगदलपुर से जबलपुर की बरास्ते रायपुर मेरी वह यात्रा रात्रि जागरण के साथ भोर में सम्पन्न हुई थी और कुछ देर कमर सीधी कर लेने के इरादे से मैं लेटा तो पत्नी से कहा कि लगभग 11 बजे जगा देना, ताकि राखी परिक्रमा शुरू हो सके। सो जब लगभग साढ़े आठ बजे ही जगाया गया, तो कुछ खीझ ज़ाहिर की। पत्नी ने गम्भीर स्वर में कहा कि अभी-अभी प्रभात जी (प्रभात वर्मा, जो आकाशवाणी, जबलपुर में वरिष्ठ उद्घोषक थे) का फ़ोन यह बताने के लिये आया था कि परसाई जी नहीं रहे।

तुरत-फुरत तैयार हो परसाई जी के घर पहुंचा। बहुत बार जा चुका था, पर उस दिन लगा कि जैसे एक लगभग अनजान से घर में जा रहा हूं। जिस बैठक कक्ष में परसाई जी अपने बिस्तर पर कभी बैठे, कभी अधलेटे और कभी लेटे-लेटे ही मिलते थे और वह सब कुछ कहते-सुनते थे, जिसने हमारी चेतना और दृष्टि को गढ़ा था, वहीं उनके पार्थिव शरीर को रखा गया था। शव-यात्रा की तैयारी शुरू हो चुकी थी। वहां बहुत से अपने बड़े-छोटे और हमउम्र साथी मिले। सन्नाटे में हमारी आपसी फुसफुसाहटें हमें ही बीच-बीच में चौंका देती थीं।

पर वहां अनेक ऐसे और काफ़ी महत्वपूर्ण से लोग संचालक मुद्रा में मौजूद थे, जिन्हें वहां कभी देखना तुरन्त याद नहीं आ रहा था। धीरे-धीरे समझ में आया कि ये ज़िला प्रशासन के अधिकारीगण थे और ये इसलिये वहां थे कि परसाई जी का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किए जाने की मध्य प्रदेश शासन की ओर से घोषणा हो चुकी थी और ये लोग उसी का बन्दोबस्त देखने आए थे। उसके बाद जैसे वहां एक चुपचाप परायापन सा व्यापता महसूस होने लगा।

शव-यात्रा दोपहरी ढलने के कुछ पहले नर्मदा तट पहुंची - सम्भवत: ग्वारी घाट के पास (जबलपुर में नर्मदा के प्रमुख घाटों के नाम ग्वारी घाट, तिलवारा घाट, जिलहरी घाट आदि हैं)। मैं अपने स्कूटर से गया, जिसकी परिक्रमा का पथ उस दिन छिन्न-भिन्न हो गया था, जैसे और भी बहुत कुछ। चिता सजी, मध्य प्रदेश पुलिस के जवानों ने सलामी दी और अग्नि प्रज्ज्वलित हो उठी। धरती-आकाश धुंए से जुड़ गए। हम सब बहुत थके, बहुत टूटे-हारे चिता के आसपास बिखरे-बैठे रहे। मैंने कड़वाती आंखें बंद कर लीं और एक दु:स्वप्न भरी अधजगी नींद में डूबने-उतराने लगा। हम सब के वैचारिक अभिभावक परसाई जी चले गए। जब उनकी इतनी ज़रूरत थी। कितनी सूनी, कितनी ख़ाली हो गई थी हमारी दुनिया!

कि एक संबोधन सा सुन कर चेतना लौटी। देखा, एक उत्साही नौजवान हाथ में माइक लिए मेरे पास खड़ा है और मुझसे अनुरोध कर रहा है कि मैं सिटी-केबल के लिये अपनी श्रद्धांजलि रिकॉर्ड करा दूं। उसके पीछे उसका कैमरामैन बहुत गम्भीरता और महत्ता के साथ सन्नद्ध था। मैं कुछ अचकचाया तो मुझे बताया गया कि कई लोग तो रिकॉर्ड करा भी चुके थे और कुछ ख़ास-ख़ास लोगों से ही यह अनुरोध किया जा रहा था। मैं काफ़ी चैतन्य हो उठा और कुछ कहा भी। एक शरमाता सा ख़्याल भीतर था कि बाल बहुत बिखरे हुए तो नहीं और चेहरा बहुत ज़्यादा सूखा-सा तो नहीं। फिर लगा कि अगर हाल बेहाल दिख रहा है, तो अवसर के उपयुक्त ही है।

इस बीच चिता परिक्रमा शुरू हो गई थी। फिर एक संक्षिप्त शोक-सभा हुई, जिसमें एक-दो लोग बोले और फिर शासन के प्रतिनिधि अधिकारी ने एक बयान अटकते हुए और कुछ ग़लत उच्चारणों के साथ पढ़ा, जिसमें 'महान साहित्यकार पद्मश्री श्री हरिशंकर परसाई' के लेखन की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी। अचानक मुझे याद आया कि परसाई जी ने अपने एक निबन्ध 'ज़िंदगी और मौत का दस्तावेज़ (वसीयतनामा फ़रमाइशी)' में अपनी मृत्यु के बाद के सम्भावित तमाशे का अद्भुत वर्णन किया था। मेरे बदन में बिजली सी दौड़ गई। लगा - देखो, शुरू हो गया।

इस बीच वहां सूचना दी गई कि औपचारिक विधिवत शोकसभा फ़लां-फ़लां तारीख को फ़लां-फ़लां जगह इतने बजे होगी। सभी लोग वहां भी पधारें और अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करें। हम सब लोग लौटने के लिये अपने-अपने साधन की ओर खिसकने लगे। कि भागा हुआ सिटी-केबल वाला युवा आया और बताया कि 'श्रद्धांजलि कार्यक्रम' रात इतने-इतने बजे टेलीकास्ट होगा। अनेक लोग रुचिपूर्वक रुक गए। कुछ ने प्रसारण समय की फिर पुष्टि कराई। मेरा भी हाथ अपने बालों को कुछ संवारने की मुद्रा में उठने लगा और एक सहमी हुई पुलक भी थरथराने लगी। फिर ख़ुद पर कुछ गुस्सा आया, कुछ शर्म आई।

और तभी समझ में आ गया कि परसाई जी कहीं नहीं गए हैं, हमेशा साथ रहेंगे। वे बाहर-भीतर के सभी विद्रूप उजागर करते रहेंगे और तमाम ज़रूरी लड़ाइयों की समझ और तैयारी में मदद करते रहेंगे। हां, जो थप्पड़ लगाए जाने हैं, ख़ास कर अपने ही गालों पर, उनके लिये अब ख़ुद की ही हथेलियां इस्तेमाल करनी होंगी।

आज 25 बरस बीत गए।

Friday, July 31, 2020

कलम के सिपाही प्रेमचंद

आज हिंदी के अब तक के सबसे बड़े कथाकार प्रेमचंद की 140वीं जयंती है. 8 अक्टूबर, 1936 को कलम का यह अद्वितीय और जांबाज़ सिपाही इस दुनिया को छोड़ गया. उनकी शवयात्रा में गिने-चुने लोग ही शामिल थे और किसी राहगीर के सवाल कि यह किसकी अर्थी है, का किसी दूसरे ने यों जवाब दिया था - शायद किसी मुदर्रिस (शिक्षक) की. शिक्षक तो प्रेमचंद थे ही, हैं ही, जैसा कि हर महान साहित्यकार होता है. पर उनकी शिक्षा वर्तमान और यथार्थ को जानने-समझने की ही नहीं, उसे बेहतरी की ओर ले जाने के लिये लोकमानस को तैयार करने की भी थी. अप्रैल, 1936 में लखनऊ में संपन्न प्रगतिशील लेखक संघ के पहले राष्ट्रीय सम्मलेन में अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा था कि साहित्यकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है. उन्होंने यह भी कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल है.

प्रेमचंद के लेखकीय व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं और वे जनवादी साहित्य में विश्वास रखने वालों के लिये प्रेरणा के अक्षय स्रोत हैं. मुझे एक बात जो कभी चमत्कृत करना बंद नहीं करती, वह यह है कि बड़ी सीधी-सरल किस्सागोई शैली से आरम्भ करने के बाद वे लगातार लिखते-लिखते बेहतर होते गए. वे दुनिया के उन बहुत कम लेखकों में है, जिनकी अंतिम रचनायें उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनायें हैं. 'गोदान' और 'कफ़न' इसका प्रमाण हैं (उपन्यास 'मंगलसूत्र' अधूरा रह गया था). अमूमन जो लोग लम्बे समय तक लिखते हैं और ख़ूब लिखते हैं, उनके रचनात्मक आवेग और कौशल में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं. पर प्रेमचंद की रचना-यात्रा की एक ही दिशा थी - ऊर्ध्वमुखी. और वे केवल 56 साल की उम्र में चले गए थे. और रहते तो न जाने कौन-कौन सी और भी नयी ऊंचाइयां और गहराइयाँ हासिल कर के जाते.

प्रेमचंद के रचना-संसार की बहुत चर्चा दुनिया भर में हुई है. हिंदी के वे निस्संदेह सबसे अधिक पढ़े गए गद्य-लेखक हैं. संसार की अनेक भाषाओं में उनकी कृतियों के अनुवाद हुए हैं. पर अभी उनकी कई रचनाओं पर और ज़्यादा ध्यान दिए जाने की गुंजाइश है. ऐसा कई बार होता है (और प्रेमचंद के साथ भी हुआ है) कि विपुल मात्रा में सिरजने वाले की कुछ कृतियों पर ही बार-बार ध्यान जाए, बात हो और उनका लिखा बाक़ी काफ़ी कुछ अपेक्षाकृत अलक्षित ही रह जाए. इस मुद्दे पर भविष्य में और लिखूंगा.

आज मेरे लिये प्रेमचंद जयंती एक और रोमांच ले कर आई. मैं जन्म, पैतृक स्थान, शिक्षा आदि के नाते से उत्तर प्रदेश का हूँ, पर मेरे लेखकीय व्यक्तित्व का परिष्कार मध्य प्रदेश में हुआ. मेरी प्रगतिशील लेखक संघ के साथ संलग्नता भी 1979 में जबलपुर से शुरू हुई थी. हरिशंकर परसाई (जिनका अद्भुत निबंध 'प्रेमचंद के फटे जूते' आज भी हिला जाता है), ज्ञानरंजन, मलय जी जैसी विभूतियों के मार्गदर्शन में यह यात्रा आगे बढ़ी. मध्य प्रदेश (और अब जिसका एक भाग छत्तीसगढ़ बन चुका है) के विभिन्न स्थानों पर रहते हुए यह सम्बन्ध दृढ़तर होता गया. फिर भौगोलिक दूरी बहुत कुछ छीन ले गई. आज फिर से मैं मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के आयोजन में सहभागिता का सौभाग्य पा सका, जब प्रेमचंद जयंती के अवसर पर आयोजित ऑनलाइन समागम में मैं जुड़ सका. यह राजेंद्र शर्मा जी और शैलेन्द्र शैली जी के सौजन्य से संभव हो पाया. मुझे लगा, मैं वापस घर पहुँच गया हूँ.

क्या इस वापसी के बाद बहुप्रतीक्षित नयी शुरुआतें होंगी? पुरोधा प्रेमचंद का आशीर्वाद चाहिए.

Friday, June 26, 2020

45 साल पहले

आज बहुत लोग याद कर रहे हैं कि 45 साल पहले 25 और 26 जून, 1975 की दरमियानी रात में आपातकाल लागू होने के समय वे कहां थे और क्या कर रहे थे। मैं तब बनारस में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में बी.एस.सी. (अंतिम वर्ष) की परीक्षा (सत्र विलम्बित था) दे चुका था या देने को था, पर ग्रीष्मावकाश में अपने ननिहाल दिल्ली आया था। ननिहाल पंजाबी बाग में थी। दिल्ली की वह मेरी पहली स्वतंत्र यात्रा थी और उसके कई रोमांचक पल स्मृति में रचे-बसे हुए हैं। पर देश में चल रहे लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन (जिससे हम भी उद्वेलित थे) से उपजी बेचैनी आसपास लगातार महसूस हो रही थी। सम्भवत: 12 जून के आसपास इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा का वह प्रसिद्ध निर्णय आया, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी के लोकसभा निर्वाचन को अवैध घोषित किया गया था। उसके एक-दो दिन बाद मैं और मेरे कुछ ममेरे-मौसेरे भाई-बहन सुबह के शो में चल रही बलराज साहनी की कालजयी फ़िल्म 'गर्म हवा' देखने घर से निकले, पर उस दिन जा नहीं सके, क्योंकि पता चला कि इंदिरा जी वाले फ़ैसले के विरोध में बस सेवा कर्मी हड़ताल पर थे और ऑटो आदि भी नहीं चल रहे थे। (वह फ़िल्म बाद में मैंने अकेले ही जा कर देखी।)
बहरहाल, कुछ दिन बाद मैं अपनी सबसे बड़ी मौसी जी के पास हाथरस गया, जहां अच्छा-ख़ासा बुख़ार चढ़ आया, तो कई दिन वहीं रहना पड़ा। बीमारी में दीन-दुनिया की ख़बर भी कुछ कम रही। उसके बाद मैं अपनी दूसरी ननिहाल कम्पिल के लिये रवाना हुआ। (कम्पिल दरअसल महाभारतकालीन काम्पिल्य नगरी है, जो द्रौपदी के पिता राजा द्रुपद की राजधानी थी और जहां अग्निकुण्ड से द्रौपदी का जन्म हुआ था, यह वहां के लोगों की दृढ़ मान्यता है)।
मैं 25 जून की रात हाथरस से किसी ट्रेन से सफ़र पर चला। शायिका आरक्षण वगैरह तो हम लोगों के लिये तब लगभग अनजानी बात थी। गर्मियों में छुट्टियों और शादी-ब्याह की वजह से रेलगाड़ियों में भीड़ ज़्यादा ही होती है। उस गाड़ी से कासगंज तक जा कर कायमगंज के लिये ट्रेन बदलनी थी, जहाँ से कम्पिल की दूरी तब शाही सवारी इक्के में तय की जाती थी। तो भीड़ ऐसी थी कि हाथरस से कासगंज तक कहीं टिकने की जगह भी नहीं मिली। खड़े-खड़े हाल पस्त हो गया। अलस्सुबह गाड़ी कासगंज पहुंची। अगली गाड़ी आने में घण्टा-डेढ़ घण्टा बाक़ी था। बुख़ार के बाद की कमज़ोरी, रात्रि जागरण और घण्टों खड़े रह कर शरीर और मन चूर हो रहे थे। मैं प्लेटफ़ॉर्म पर एक बेंच पर आंखें मूंद कर बैठ गया।
कि तभी अख़बारों के हॉकर वहां आ पहुंचे और देश में आपातकाल लागू हो चुकने का उद्घोष करने लगे। जैसे तीर खाया जीव छटपटाता है, वैसे ही आत्मचेतना जैसे तड़पने लगी। झपट कर अख़बार ख़रीदा और पढ़ गया। याद है कि उत्तेजनावश अख़बार पकड़े हाथ थरथरा रहे थे और उसका कागज़ बड़ा अजीब और अजनबी लग रहा था। कासगंज के रेलवे स्टेशन की वह भोर जैसे जल उठी। थकान से लस्त था, पर आंखों और मन की कड़वाहट और एक अजीब सी सनसनी में नींद बहुत दूर जा छुपी
इसके बाद वह यात्रा आगे बढ़ी, पूरी हुई। आपातकाल के दौरान क्या कुछ सोचा-देखा-महसूस किया और प्रतिरोध में एक विद्यार्थी के रूप में ही अपनी छोटी सी भूमिका निभाने में क्या किया, फिर कैसे 'दूसरी आज़ादी' आई, उसका क्या हश्र हुआ, मैं विचार और सम्वेदना के कितने सोपानों से गुज़रा, आज का क्या हाल है, उसका कितना मलाल है - ये सब बाद की बातें हैं। अभी कासगंज रेलवे स्टेशन पर 26 जून, 1975 की वह भोर ही स्मृति-पटल पर कौंध रही है, जब बहुत सारी दूसरी चीज़ों की तरह सुबह की पहली चाय भी बिल्कुल कसैली हो गई थी।

Sunday, June 21, 2020

ओ पिता

वैसे मैं बाज़ार द्वारा थोपे गए भांति-भांति के 'दिवस' नहीं मनाता, बल्कि या तो उन पर कुढ़ता हूं या उनका मज़ाक उड़ाता हूं। पर आज न जाने कैसे यह दिन चेतना में सुगबुगा रहा है। शायद छोटे भाई संजीव के एक संदेश से यह हुआ, या भतीजे असित के दो संदेशों से। हो सकता है, कभी अपने पिता की स्मृतियों और उनके साथ अपने रिश्ते पर विस्तार से कुछ कहूं। अभी उन पर रची अपनी दो पुरानी कवितायें साझा कर रहा हूं, जो आज मुझे भी बार-बार याद आ रही हैं।

ओ पिता

तुम्हारे पीछे-पीछे
इस संसार में आया
ओ पिता
तुमने जिधर देखा
तुमको देख कर
उधर देखा
तुमने उंगली पकड़ाई
तुमने खेल सिखाए
तुम साथ-साथ दौड़े भी
काफ़ी दूर तक

तुम्हारा बहुत सा दाय
दिया मैंने
पढ़ा-सीखा
बोला-लिखा
प्रेम किए
ठोकरें खाईं
गिरा धड़ाम-भड़ाम

दायित्व निभाए
जो अधूरे ही रहे
लालसा में
वासना में
काटता गया
जीवन

तुमसे आगे गया
तुमसे पीछे रहा
तुम सा ही रहा
पर तुम सा नहीं रहा

पिता
तुमने और मैंने
मिल कर
कितना कुछ
बिगाड़ा
कितना कुछ
रच डाला।

मुक़दमा

तब पिता का
बिड़ला से
मुक़दमा जारी था
और हम
अक्सर मिलते थे
उनसे अपने मन की
बहुत सी बातें भी
कह लेता था मैं
सुनते थे पिता
उन्हीं दिनों में
भयानक अभाव के बीच
जाने कैसे
अपनी ही ओर से
'दास कैपिटल' के तीनों खण्ड
ख़रीद कर जैसे भेंट में
मुझको दिए थे उन्हीं पिता ने
जो रोज़ बिना नागा
देर तक पूजा करते थे
और मुझको लगता था
जैसे मंत्रोच्चार के बीच-बीच में
बिड़ला भी आता था
आसुरी शत्रु जैसा

जाने कैसे
बीत गए इतने सारे बरसों में
एक बार भी
पूरी नहीं पढ़ी जा सकी
'दास कैपिटल'
पिता ने तो छोड़ दी थी पूजा
मैं करने लगा हूं
और बालपन में सुने मंत्रों से बाहर का
नहीं है कोई देवता या दैत्य या दानव
मेरी पूजा में
क्या पूरा हो गया है
मुक़दमा?

Friday, May 1, 2020

दो पंछी

29 अप्रैल को इरफ़ान ख़ान गए, 30 अप्रैल को ऋषि कपूर. सिनेमा की दुनिया के, अभिनय के संसार के दो दिग्गज नाम. वैसे दोनों की दुनिया ख़ासी अलग-अलग थी. ऋषि हिंदी सिनेमा की 'फ़र्स्ट फ़ैमिली' में जन्मे. जैसे उनके चाचा शशि कपूर ने 'आवारा' में अपने बड़े भाई राज कपूर के बचपन की भूमिका से अपनी अभिनय यात्रा शुरू की थी, ऋषि ने अपनी पहली भूमिका में पिता राज कपूर का बचपन 'मेरा नाम जोकर' के पहले भाग में निभाया (पहला भाग उस फिल्म का सर्वश्रेष्ठ भाग था). फिर उन्हें महान शोमैन ने 'बॉबी' में ऐसा प्रस्तुत किया कि वे तरुण और निश्छल रोमांस के प्रतिनिधि नायक बन गए. और यह छवि फ़िल्म-दर-फ़िल्म उनके साथ चलती रही. उम्र बढ़ने के साथ भूमिकाओं के रंग-रोगन में कुछ परिवर्तन अनिवार्य थे, वे हुए, पर बुनियादी तौर पर सिनेमा के परदे पर ऋषि कपूर सहृदय और सज्जन प्रेमी ही बने रहे. इस स्थिति में निर्णायक बदलाव आना लोग 2012 की फ़िल्म 'अग्निपथ' से मानते हैं, जिसमें उन्होंने रऊफ़ लाला का किरदार निभाया और फिर दिलचस्प तथा अपेक्षाकृत अधिक यथार्थपरक चरित्रों को साकार करने की चुनौतियों का मज़ा उठाते चले गए. इस तरह उन्होंने अपनी बदल चुकी देहयष्टि और शक्ल-सूरत को अपने अभिनेता की नयी शक्ति भी बना लिया और एक कहीं ज़्यादा बेहतर और समृद्ध विरासत छोड़ना भी सुनिश्चित कर लिया. ज़रा सोचिए, आज हमारे पास 'दो दूनी चार' और 'मुल्क़' न होतीं, तो ऋषि के अवदान को हम किस तरह याद कर रहे होते!

इरफ़ान की कहानी बहुत अलग तरह से शुरू हुई, पनपी और बढ़ी. राजस्थान के एक छोटे शहर टोंक से शुरू कर जयपुर होते हुए वे दिल्ली आए, थिएटर का विधिवत प्रशिक्षण लिया और जूझने लगे. टेलीविज़न के रास्ते उठे, फ़िल्मों तक पहुंचे और बहुत दिनों तक छोटे-छोटे अवसरों के सहारे टिके रहे. मैंने सबसे पहले इरफ़ान की जो फिल्म देखी थी, वह 2002 में बनी 'प्रथा' थी राजा बुंदेला की, जिसमें इरफ़ान ने एक ढोंगी साधु की भूमिका निभाई थी. फिल्म राजा बुंदेला के नाम पर देखी थी, पर याद इरफ़ान रह गए. 'हासिल' और 'मक़बूल' के बाद उनका सितारा जो चमका, तो फिर पूरी दुनिया उनकी अद्भुत प्रतिभा का लोहा मानती चली गई. अपनी सफलता का एक-एक रेशा इरफ़ान ने ख़ुद को खराद पर चढ़ा कर कमाया. और फिर बहुत जल्दी, बहुत ही जल्दी चले गए. 'पान सिंह तोमर' और 'लंचबॉक्स' जो दे गया, वह और क्या-क्या कुछ कर सकता था, सोच कर ग़ुस्सा और रोना - दोनों आता है.

मेरी अपनी तरुणाई की करवटों के ज़माने में ऋषि भी साथ थे और उम्र कितनी ही हो जाए, जो तरुणाई भीतर बची ही रहनी है, उसमें वे रहेंगे. परिपक्वता (जितनी भी सध सकी है) को रोशन करने वालों में इरफ़ान की आँखों का उजाला भी मिला, यह हमारी पीढ़ी का सौभाग्य था. अलविदा, जादूगरो.

Saturday, February 15, 2020

रेडियो: दोस्त पूरी दुनिया का

13 फ़रवरी को विश्व रेडियो दिवस था. दुनिया भर में फैली रेडियो बिरादरी का अपना उत्सव.
एक सदी से अधिक बीत चुकी है, जब हमारी दुनिया में एक नये मेहमान ने दस्तक दी थी. ज़्यादातर लोगों के लिये वो एक अनोखा अजूबा था, एक ऐसा बक्सा जो बोलता था, तरह-तरह की आवाज़ों में, दूर-पास की ख़बरें देता था, बहुत सी नयी-नयी बातें बताता था और बहुत मीठा और सुरीला गाता-बजाता भी था. वो था रेडियो. जल्दी ही वो दोस्त बन गया, दोस्ती बीतते पलों और सालों के साथ गाढ़ी होती गई और आज तक कायम है. रेडियो कहता था, लोग सुनते थे, सुनते थे और गुनते थे यानी उसे मन की आँखों से देखते चलते थे. अपनी-अपनी कल्पना के पंख पर सवार हो कर रेडियो तरंगों के साथ जैसे पूरे ब्रह्माण्ड को नाप आते थे.

वैसे रेडियो की कहानी मनुष्य की कल्पना में तो बहुत पहले शुरू हो गई थी. भारत की अनेक पौराणिक कथाओं में आकाशवाणी होने का ज़िक्र आता है. आकाशवाणी यानि आसमान से आने वाली अशरीरी आवाज़ें. याद कीजिए श्रीकृष्ण जन्म के पूर्व और जन्म के समय की कथा में उन आकाशवाणियों को, जिनमें अत्याचारी कंस को उसके आसन्न अंत की भविष्यवाणियां सुनाई गईं थीं. अपने मूल रूप में रेडियो आकाश से उतरने वाली ध्वनियों का संसार ही तो रचता है.

परिवर्तन एक शाश्वत सत्य है. मीडिया परिदृश्य में अब ढेर सारे नये-पुराने संगी-साथी मौजूद हैं. अख़बार और पत्रिकायें पहले से थीं, बाद में टेलीविज़न भी आ पहुंचा यानी देखो भी और सुनो भी. अब तो दुनिया डिजिटल हो चुकी है. सारा संसार इन्टरनेट के माध्यम से पलों में सब कुछ साझा कर सकता है. पर रेडियो से हमारी दोस्ती बनी हुई है. कुछ रंगरूप बदला है, कहने-सुनने के ढंग और आदतें बदली हैं, तकनीक में तो जैसे क्रांति ही हो गई है. पर सबसे सस्ते, सुलभ, आत्मीय और विश्वसनीय साथी के रूप में रेडियो हमारे साथ बना हुआ है.

जून, 2011 में संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को ने विश्व रेडियो दिवस मनाने का विचार दुनिया के सामने रखा और इसके लिये कुछ संभावित तारीख़ों का प्रस्ताव भी किया. मूल रूप से इसका बीजारोपण स्पेन की रेडियो अकादमी में हुआ था और फिर स्पेन ने ही यूनेस्को के सामने इसे प्रस्तुत किया था. भारत से भी सहमति और उचित तिथि के लिये सुझाव मांगे गए थे, जो भेजे भी गए. यूनेस्को के कार्यकारी मंडल ने नवम्बर, 2011 में घोषित किया कि यह प्रस्ताव स्वीकृत हुआ और विश्व रेडियो दिवस हर साल 13 फ़रवरी को मनाया जाएगा. 13 फ़रवरी, 1946 को यू.एन. रेडियो यानि संयुक्त राष्ट्र रेडियो की स्थापना की गई थी. इस निर्णय को संयुक्त राष्ट्र सामान्य सभा द्वारा भी अंगीकार कर लिया गया.

पहली बार विश्व रेडियो दिवस औपचारिक रूप से 2012 में मनाया गया और तब से हम इसे पूरी रेडियो बिरादरी के साझा उत्सव के रूप में मनाते आ रहे हैं. इस वर्ष इस दिवस की विषयवस्तु या थीम है ‘We are Diversity, We are Radio’ यानि ‘हम हैं विविधता, हम हैं रेडियो’ या संक्षेप में 'रेडियो और विविधता'. भारत जैसे बहुरंगी वैविध्य से सजे हुए देश में यह विषय और भी सार्थक हो उठता है, विशेषकर वर्तमान परिवेश में, जब यह विविधता संकटग्रस्त है.

इस वर्ष विश्व रेडियो दिवस पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने अपने सन्देश में कहा: -

“रेडियो लोगों को नज़दीक लाता है. आज के बेहद तेज़ मीडिया उद्विकास के युग में भी, मूल्यवान समाचारों और सूचनाओं के एक सर्वसुलभ स्रोत के रूप में हर समुदाय में रेडियो ने अपनी विशिष्ट स्थिति को बनाए रखा है.

लेकिन रेडियो ऐसे नवाचार का स्रोत भी है, जिसने श्रोताओं के साथ अन्तःक्रियात्मकता और उपयोगकर्ताओं द्वारा स्वयं प्रसारण सामग्री रचे जाने की शुरुआत की, और हालांकि अब यह प्रसारण की मुख्य प्रवृत्ति बन चुकी है, पर रेडियो ने इसे कई दशक पहले अपना लिया था.

रेडियो अपनी कार्यक्रम विधाओं, अपनी प्रसारण भाषाओं और रेडियो प्रसारणकर्ताओं तथा कार्मिकों – इन सभी क्षेत्रों में अद्भुत विविधता का प्रदर्शन करता है.

यह पूरी दुनिया के लिये एक महत्वपूर्ण सन्देश है. आज जब हम सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने और जलवायु संकट का सामना करने के लिये प्रयास कर रहे हैं, रेडियो को सूचनाओं और प्रेरणाओं – दोनों के स्रोत के रूप में एक अहम् भूमिका निभानी है.

आइए, इस विश्व रेडियो दिवस पर, हम रेडियो की उस निरंतर शक्ति को मान्यता दें, जो विविधता को प्रोत्साहन देती है और एक अधिक शांतिपूर्ण और समावेशी संसार के निर्माण में हमारी मदद करती है.”

हमारे देश में एक बहुत लम्बे समय तक रेडियो का एक ही मतलब था आल इण्डिया रेडियो यानी आकाशवाणी. लोक सेवा प्रसारण के तीन प्रमुख आयाम हैं सूचना, शिक्षा और मनोरंजन. भारत में आज़ादी के बाद से देश के नवनिर्माण और विकास की मुहिम में आकाशवाणी एक समर्थ और समर्पित साथी के रूप में लगातार सक्रिय है. हरित क्रांति के जनक महान कृषि वैज्ञानिक डा. एम. एस. स्वामिनाथन ने उस क्रांति के नायकों में आकाशवाणी का नाम लिया था.

भारत में रेडियो यानी आकाशवाणी की यात्रा में अनेक अत्यंत प्रतिभाशाली प्रतिभायें सहचर बनीं. संगीत, साहित्य, खेल, विज्ञानं और सार्वजनिक जीवन से जुड़े चिंतन-मनन के लगभग सभी क्षेत्रों का शायद ही कोई ऐसी मूर्धन्य विभूति हो, जिसका नाता आकाशवाणी से न रहा हो. साहित्य और भाषाओं के संरक्षण और संवर्द्धन में रेडियो की भूमिका और परंपरा सर्वविदित है. रेडियो में साहित्य की उपस्थिति, संस्कारों और प्रभावों का समुचित आकलन अभी शेष है.

रेडियो के प्रसारकों में भी समाचारवाचकों से ले कर नाटकों, रूपकों के निर्माताओं और उद्घोषकों-प्रस्तोताओं की सितारों जैसी जगमगाती एक सुदीर्घ श्रंखला है, जिनकी स्मृतियाँ हम सबको रोमांचित करती हैं. आकाशवाणी की सबसे लोकप्रिय चैनलों में निस्संदेह विविध भारती का नाम सबकी ज़ुबान पर आता है. सुरुचिपूर्ण मनोरंजन के उद्देश्य को समर्पित विविध भारती के कार्यक्रम श्रोताओं के एक बड़े वर्ग के दिल में रचे-बसे रहे हैं.

आकाशवाणी ने अपने अस्तित्व में आने के बाद के भारत के इतिहास के लगभग सभी निर्णायक और महत्वपूर्ण पलों का पूरे देश को साक्षी बनाया. जहां अनेक सुखद उपलब्धियों की गाथा सुना कर उसने देश को आह्लादित और गौरवान्वित किया, वहीं कुछ बेहद पीड़ादायक पलों के सत्य का साक्षात्कार भी कराया. राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के जीवन के अंतिम काल में दिल्ली में उनकी दैनिक प्रार्थना सभा की रोज़ रिकॉर्डिंग कर प्रसारित की जाती थी. वह दायित्व सँभालने वाले दल के सदस्यों ने बापू की हत्या का दारुण दृश्य भी देखा था.

रेडियो के कार्यक्रम समाज के सभी लोगों के लिये होते हैं पर कुछ ख़ास कार्यक्रम कुछ विशेष श्रोता वर्गों जैसे युवाओं, महिलाओं, बच्चों, बड़े-बुजुर्गों, ग्रामीण श्रोताओं, औद्योगिक श्रमिकों, सैन्य बालों के सदस्यों आदि को समर्पित होते हैं. रेडियो के श्रोताओं में भी अद्भुत विविधता के दर्शन होते हैं.

मीडिया के क्षेत्र में अद्भुत तकनीकी और शैलीगत प्रगति हुई है, पर प्राकृतिक आपदा प्रबंधन में संसार भर में रेडियो सर्वश्रेष्ठ और सबसे प्रभावी माध्यम बना हुआ है.आपदा प्रबंधन संचार में सामान्य रेडियो के अलावा ‘हैम रेडियो’ नामक एक शौकिया रेडियो तकनीक भी अत्यंत प्रभावी भूमिका निभाती है.

आज भूमंडलीकरण के दौर में हम ‘विश्व-ग्राम’ की अवधारणा को साकार होते देख रहे हैं. पर रेडियो ने अपने अस्तित्व के आरंभिक दिनों से ही समूची दुनिया और सारी इंसानियत को एक सूत्र में बाँधने का उपक्रम किया. अनेक महत्वपूर्ण प्रसारण संगठन अपने देश के साथ-साथ शेष दुनिया के लोगों के लिये उनकी भाषाओं में कार्यक्रम प्रसारित करते हैं. आकाशवाणी भी ऐसे प्रसारकों में शामिल है. इन रेडियो प्रसारणों के ज़रिये अलग-अलग देशों की भाषायें ही नहीं, वहां की सभ्यतायें और संस्कृतियां भी विश्व भ्रमण करती हैं और संसार भर के लोगों को एक-दूसरे से गहराई से परिचित ही नहीं करातीं, बल्कि मज़बूती से जोड़ती भी हैं.

मीडिया में कामकाज की सार्थकता का सवाल हमेशा प्रासंगिक होता है. क्या है जो एक रेडियो प्रसारक को यह संतोष देता है कि उसने वास्तव में कुछ ऐसा किया है, जो उसे एक आत्मिक संतोष दे सके. शायद वह है सामाजिक सोद्देश्यता का बोध.

हमारे देश में रेडियो की ज़्यादातर कहानी आकाशवाणी में समाहित रही है. पर बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के संधिकाल में पहले निजी स्वामित्व वाले व्यावसायिक रेडियो चैनल आए, जिन्होंने रेडियो कार्यक्रमों की कथावस्तु और उसकी प्रस्तुति शैली के व्याकरण में अनेक दिलचस्प बदलाव रचे. रेडियो के संसार का एक अपेक्षाकृत नया पर बहुत ही महत्वपूर्ण आयाम है सामुदायिक रेडियो आन्दोलन.

तुर्की के महान कवि नाज़िम हिकमत ने इटली के वैज्ञानिक मारकोनी के आविष्कार यानी रेडियो के जन्म को इन शब्दों में व्यक्त किया था जिसने मुक्त किया आवाज़ों को गगन में नीलपाखी परिंदों की तरह. गगन अब भी गूँज रहा है इन परिंदों की उड़ान के साथ. रेडियो हमारे साथ है और रहेगा, बातें करता, गाता-गुनगुनाता, हमारे सुख़-दुःख बांटता, हमें अनंत की ओर यात्रा में आगे ही आगे ले जाता और हमारे साथ चलता. दोस्त, साथी, सहयात्री.

Thursday, February 6, 2020

भारंगम-2020: उद्घाटन में 'अमोल'

शनिवार, 1 फ़रवरी, 2020 को दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (National School of Drama popularly known by its acronym NSD) के आयोजन भारत रंग महोत्सव (भारंगम) के 21वें संस्करण का शुभारम्भ हुआ।
उद्घाटन समारोह कमानी प्रेक्षागृह में सम्पन्न हुआ। मुख्य अतिथि थीं सुविख्यात गायिका और रंगकर्मी विदुषी ऋता गांगुली जी (महान गायिका बेग़म अख़्तर की ख़ास शागिर्द) और विशिष्ट अतिथि थे मराठी और हिंदी के जानेमाने रंगकर्मी और सिने अभिनेता डॉ. मोहन अगाशे। इन दोनों विभूतियों को प्रत्यक्ष सुनना बेहद मूल्यवान अनुभव था।
उद्घाटन समारोह के बाद भारंगम-2020 की पहली नाट्य प्रस्तुति 'कुसूर' मंचित हुई, जो डेनमार्क की फ़िल्म 'Den Skyldige' पर आधारित थी। इसके हिन्दी पाठ की लेखिका और सह-निर्देशक थीं सन्ध्या गोखले। पुणे के नाट्य-समूह अन्नान निर्मिती की इस प्रस्तुति में मुख्य अभिनेता और निर्देशक के दोहरे दायित्व निभाए थिएटर, फ़िल्मों और टेलीविज़न की दिग्गज हस्ती अमोल पालेकर ने। अमोल जी अभी हाल में 75 वर्ष के हुए हैं और ख़ूब चुस्त और सक्रिय हैं।
नाटक एक रहस्य कथा के रूप में आगे बढ़ता है, पर रहस्योद्घाटनों की श्रंखला बाह्य जगत ही नहीं, बल्कि पात्रों और उनके माध्यम से दर्शकों को भी अपने भीतर के बीहड़ यथार्थ के अंधेरों से भी निर्ममतापूर्वक रूबरू कराती है, जो अन्ततः सभी को विरेचन (catharsis) से गुज़ारती है।
नाट्य प्रस्तुति के बाद मुझे अमोल पालेकर जी के संक्षिप्त सान्निध्य का सुअवसर भी मिला, जिसमें मैंने उन्हें याद दिलाया कि 1993-94 में आकाशवाणी महानिदेशालय में निर्मित कैशोर्य जीवन पर हिन्दी रेडियो नाट्य धारावाहिक 'दहलीज़' में एक उपन्यासकार के रूप में प्रस्तुत किए गए सूत्रधार का चरित्र उन्होंने निभाया था (और क्या ख़ूब निभाया था)। इस धारावाहिक का लेखन प्रख्यात रंगकर्मी और नाटककार सुश्री त्रिपुरारी शर्मा ने किया था और इसकी आरम्भिक 26 कड़ियों की प्रस्तुति मैंने और सह-प्रस्तोता मुकेश सक्सेना ने की थी। मैं आकाशवाणी, जबलपुर से और मुकेश आकाशवाणी, ग्वालियर से इस निर्मिति हेतु लगभग छह महीने के प्रवास पर दिल्ली आ कर रहे थे।
बहरहाल, 'दहलीज़' कथा.फिर कभी और आगे बढ़ेगी। आज के लिये महत्वपूर्ण बात यह कि अमोल जी को भी रेडियो नाटक की दुनिया में अपनी वह भागीदारी याद आई (उनकी रिकॉर्डिंग मुम्बई में की जाती थी और आकाशवाणी, मुम्बई के सौजन्य से हमें हर सप्ताह दिल्ली में प्राप्त होती थी)। फलत: उनके साथ एक छायाचित्र का सौभाग्य मुझे मिला।
चलते-चलते यह उल्लेख भी समीचीन होगा कि 'रजनीगंधा', 'छोटी सी बात', 'चितचोर' से ले कर अनेक बेहद प्रिय और आत्मीय फ़िल्मों में सहज-सरल से ख़ासे जटिल तक चरित्रों को साकार करने वाले अमोल पालेकर जी हमारे विश्वविद्यालय के दिनों से हमारे बहुत मनचाहे कलाकार रहे हैं। मेरे विद्यालय काल से अब तक के घनिष्ठतम मित्रों में एक सुदीप भट्टाचार्य के रूपरंग में अमोल जी से ख़ासा सादृश्य है, जिस पर सुदीप के परिजन और हम मित्र मोहित रहते हैं। एक और दिलचस्प तथ्य यह भी कि भीमसेन निर्देशित महान प्रेमकथात्मक फ़िल्म 'घरौंदा' (अमोल पालेकर, ज़रीना वहाब और डॉ. श्रीराम लागू की अविस्मरणीय भूमिकाओं के साथ) में अमोल जी के चरित्र का नाम सुदीप ही है।

Thursday, January 30, 2020

पढ़ते कैसा यह मोक्ष मन्त्र?

आज पूरा दिन मन बेहद विक्षुब्ध रहा है। देशभक्ति के भावों से ओतप्रोत काव्यधारा के लिये सुविख्यात राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी की राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को समर्पित कविता 'युगावतार गाँधी' का स्मरण आज बापू की पुण्यतिथि और समकालीन सन्दर्भों में उचित लग रहा है: -
"चल पड़े जिधर दो डग, मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर;
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गए कोटि दृग उसी ओर
,
जिसके शिर पर निज हाथ धरा
उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ
जिस पर निज मस्तक झुका दिया
झुक गए उसी पर कोटि माथ;
हे कोटि-चरण, हे कोटि-बाहु
हे कोटि-रूप, हे कोटि-नाम!
तुम एक मूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि
हे कोटिमूर्ति तुमको प्रणाम!
युग बढ़ा तुम्हारी हंसी देख
युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,
तुम अचल मेखला बन भू की
खींचते काल पर अमिट रेख;
तुम बोल उठे युग बोल उठा
तुम मौन रहे, युग मौन बना,
कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर
युगकर्म जगा, युगधर्म तना;
युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक
युग संचालक हे युगाधार!
युग-निर्माता, युग-मूर्ति तुम्हें
युग युग तक युग का नमस्कार!
दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से
तुम काल-चक्र की चाल रोक,
नित महाकाल की छाती पर
लिखते करुणा के पुण्य श्लोक!
हे युग-द्रष्टा, हे युग सृष्टा,
पढ़ते कैसा यह मोक्ष मन्त्र?
इस राजतंत्र के खण्डहर में
उगता अभिनव भारत स्वतन्त्र!"
कभी तय तो यही हुआ था। पर हुआ क्या है? जूझना होगा अपने भीतर भी, बाहर भी।

Thursday, January 23, 2020

जयहिंद सुभाष

आज नेताजी सुभाषचंद्र बोस की जयंती है. 

देश के सर्वाधिक तेजस्वी, साहसी और दृढ़ संकल्प के धनी स्वाधीनता सेनानियों में एक नेताजी के व्यक्तित्व के अनेक आयाम, कतिपय असहमतियों के बावजूद, आज भी हम सब को प्रेरणा देते हैं और सदैव देते रहेंगे. 

जब मैं आकाशवाणी के जबलपुर केंद्र में पदस्थ था, तो संभवतः 1992 या 1993 में सुभाष जयंती पर 'जयहिंद सुभाष' शीर्षक से एक वृत्त रूपक का निर्माण मैंने किया था, जिसका प्रसारण मध्य प्रदेश स्थित सभी आकाशवाणी केन्द्रों से एक साथ किया गया था. कई लोग नहीं जानते कि कांग्रेस के जिस त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष बाबू अध्यक्ष चुने गए थे और फिर महात्मा गाँधी की खिन्नता के कारण उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था, वह त्रिपुरी जबलपुर के निकट ही स्थित है. जबलपुर के केन्द्रीय कारागार में नेताजी ने अपने कारावास का कुछ काल बिताया था और हमें बताया गया था कि वह पत्थर की बेंच वहां तब भी थी, जिस पर नेताजी शयन करते थे. जबलपुर नगर में एक कमानिया गेट नामक विशाल द्वार है और संभवतः उसका निर्माण भी नेताजी और कांग्रेस के अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के स्वागत और अभिनन्दन हेतु हुआ था. 

बाद में 1999 से 2002 तक मैं अंबिकापुर में पदस्थ था और वहां इप्टा, अंबिकापुर के हम लोग सुभाष जयंती पर हर वर्ष एक भव्य आयोजन करते थे, जिसका मुख्य आकर्षण बच्चों की चित्रकला प्रतियोगिता और प्रदर्शनी होती हैं. यह क्रम अब भी जारी है. 

सुभाष बाबू का अनूठा वर्णन महान बांग्ला कथाकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने भी किया है, जिसका उल्लेख शरतचन्द्र की विष्णु प्रभाकर रचित कालजयी जीवनी 'आवारा मसीहा' में पढ़ कर मैं रोमांचित हुआ था. 

और नेताजी की चर्चा के साथ आज़ाद हिन्द फ़ौज के उनके अनन्य और अभिन्न साथियों मेजर-जनरल शाहनवाज़ ख़ान, कर्नल गुरबक्श सिंह ढिल्लों और कैप्टेन डॉ. लक्ष्मी सहगल का ज़िक्र भी अनिवार्य है. इस विखंडनकारी दौर में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की भी समग्र विरासत का स्मरण और सम्मान ज़रूरी हैं.

Tuesday, January 7, 2020

नयी सांस की नयी आस

पिछली बार यह ब्लॉग या चिट्ठा 2014 के मार्च महीने में लिखा था. उन दिनों जब-जब लिखता था, यह विलाप ज़रूर करता था कि अंतराल बहुत ज़्यादा हो जाते हैं. अब क्या बिसूरूं, जब अंतराल दिनों, सप्ताहों या महीनों भर का नहीं, कई सालों का है.

इस बीच बहुत कुछ बदल गया है. वर्ष 2018 के अक्टूबर माह में छोटी बेटी विधा का विवाह हो चुका है. बड़ी बेटी मेधा की बिटिया मिशिका का विद्यालयीन जीवन आरम्भ हो गया है. मैं आकाशवाणी की नियमित सेवा से जुलाई, 2017 में अवकाश प्राप्त कर चुका हूँ. फिर विशेष कार्य अधिकारी के तौर पर सम्बद्धता बनी रही, लेकिन वह भी 31 दिसम्बर, 2019 को समाप्त हो गई है. 1 जनवरी, 1981 को रायपुर में प्रारंभ मेरे जीवन के आकाशवाणी अध्याय का अंततः अंत हो गया है. और अब नया जीवन 1 जनवरी, 2020 से शुरू हो पाया है.

मुक्ति का यह अनिर्वचनीय अहसास है, जिसमें फ़िलहाल मैं मगन हूँ. आज विश्व पुस्तक मेले में लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के साथ एक प्रतिरोध प्रदर्शन में शिरकत की. लगा, जैसे कहीं खोए हुए ख़ुद को फिर से देख पा रहा हूँ.

इस वर्ष नूतन वर्षाभिनंदन का जो सन्देश मित्रों-स्नेहियों को भेजा, उसमें आरम्भ इन पंक्तियों से किया: -

"उत्सुक स्वागत नये वर्ष का अब भी क्यों करता है रे मन,
घिरते चारों ओर अंधेरे, दहक रहे सारे चंदन-वन,
पर लड़ना ही एक राह है जिस पर फूटेंगे उजियारे,
नयी सांस की नयी आस में कुछ तो महकें सबके जीवन।" 

आज इस फिर से की गई शुरुआत का अंत इन्हीं पंक्तियों से कर रहा हूँ. आमीन.