कल ६ मई की तारीख़ थी। मेरे जीवन में एक बहुत बड़ी घटना की तारीख़। और जब वह घटी थी, मैं कुछ भी जान-समझ नहीं पाया था, सकता ही नहीं था। ६ मई, १९५९ को मैंने अपनी मां को खोया था। और उस समय मेरी उम्र थी १ साल १० महीने की।
जब हरदोई में होश संभाला था, सबसे पहले अहसासों में शायद एक यह था कि आसपास के घरों में और बच्चों के पास जो एक मृदुल-स्नेहिल उपस्थिति होती है, मेरे घर में वह नहीं है। दूसरा कोई बच्चा भी नहीं था हमारे घर। मैं था और पिता थे। कुछ दिन एक पहाड़ी नौकर भी था, जो अकेले पड़ गए पिताजी ने शायद मेरी देखभाल में मदद के लिए रखा होगा।
काफ़ी बाद में जान पाया था कि मां की सवाई माधोपुर में मृत्यु प्रसव के तुरंत बाद हो गयी थी। जो छोटा भाई जन्मा था, शायद तीन महीनों बाद ही मेरी ननिहाल में दिल्ली में वह भी नहीं बचा था। पिता ने मां की मौत के बाद ही सवाई माधोपुर छोड़ दिया था और मुझे गोद में ले कर हरदोई आ गए थे, जहाँ वे सनातन धर्म इंटर कोंलेज के प्रधानाचार्य बन कर पहुंचे थे। मैंने होश में आने के बाद सवाई माधोपुर कभी नहीं देखा है अब तक। अब भी इस शब्द से एक भय सा महसूस होता है।
तो जिसे मां कहते हैं, अपने लिए उसके न होने के अहसास के साथ जीवन शुरू हुआ। पिता ही मां रहे और उसी सिलसिले में मेरे दोस्त बन गए, जैसे तब अधिकतर पिता नहीं हुआ करते थे। मेरे पिता भी अपनी उन संतानों के लिए मित्र नहीं थे, जिनके बारे में भी तब मैं कुछ नहीं जानता था।
फिर मेरे घर भी मां आईं। तब मैं छः साल का होने को था। इसकी एक अलग कहानी है और शायद फिर कभी कही जाए। पर इतना अभी तुरंत कहना बहुत ज़रूरी है कि मेरी बहुत अच्छी और प्यारी मां आईं। उन्होंने उस खालीपन को पूरी तरह अपने प्यार-दुलार से भर दिया, जो मेरे अन्दर मंडराता रहता था।
पर इसका एक असर यह भी हुआ कि अपनी मृत मां के बारे में घर से बाहर कुछ कहने-सुनने का कार्य अब नहीं हो सकता था। ख़ास तौर पर हमारे १९७० में हरदोई छोड़ कर ओबरा चले जाने के बाद, जहां किसी ने मुझे कभी बिना मां के नहीं देखा था। स्वाभाविक ही था कि मां मेरी सौतेली मां के रूप में नहीं पहचानी जाना चाहती थीं, क्योंकि इस शब्द की प्रचलित छवि जैसी वे थीं भी नहीं। मुझे भी मां की यह इच्छा सही ही जान पड़ती थी और हमेशा उसे निभाने की मैं कोशिश भी करता था।
पर समझ बढ़ने के साथ-साथ मन में कहीं यह जानने की उत्कंठा होने लगी थी कि मेरी जन्मदात्री मां आखिर कैसी थी। घर में उनके कुछ चित्र थे। कभी-कभी वे सामने आ जाते और मैं उस स्त्री की छवियों को देखता रहता, जो मुझे इस संसार को सौंप गयी थी।
जब इतना बड़ा हो गया कि अकेले दिल्ली की यात्राएं करने लगा, तो अपनी मूल ननिहाल में कभी-कभी मां के बारे में कुछ पूछना शुरू किया। नाना-नानी तब तक दुनिया छोड़ चुके थे और यह बात मौसीजी और दोनों मामाओं से ही हो सकती थी। जो कुछ उनसे समय-समय पर सुना, उससे अहसास हुआ कि मेरी कविता वृत्ति और संगीत के मोह की बुनियादी ज़िम्मेदार मेरी मां ही थी। फिर अपना एक घर-संसार बना और मैंने मां के एक पुराने चित्र को बड़ा करवा कर और फ्रेम में सजा कर अपने घर के पूजा-स्थान में स्थापित कर लिया। दूसरी मां तब थीं, पर उन्होंने कोई आपत्ति नहीं की।
अब मेरे पास मेरी इन दोनों माताओं के चित्र ही हैं। एक से स्मृतियों का पूरा संसार सम्बद्ध है और एक के साथ कल्पनाओं का। क्या कभी वास्तव की स्मृति और कल्पना की स्मृति एक साथ देखी जा सकती है ? पर हैं वे आसपास ही.
Friday, May 7, 2010
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