Friday, October 12, 2012

70 के अमिताभ

कल 11 अक्टूबर को सारा मीडिया तथाकथित 'सदी के महानायक' श्रीमान अमिताभ बच्चन के जन्मदिन पर न्योछावर हुआ जा रहा था। हमारे समय के विचलन और स्खलन का संभवतः यह भी एक संकेत था कि इस पूरी हायतोबा में कहीं इस तथ्य का उल्लेख तक देखने को नहीं मिला कि यह लोकनायक जयप्रकाश नारायण का जन्मदिन था, जो निश्चय ही भारत के लिये श्रीमान 'बेचन या बेचो कुमार' से कहीं ज्यादा बड़ा व्यक्तित्व है। और अमिताभ पर चर्चा में ज़ी बिज़नेस चैनेल पर एक सूची उनकी फ़्लॉप यानी असफल फ़िल्मों की गिनाई गई, जिसमें पहला नाम अमिताभ की पहली फ़िल्म 'सात हिन्दुस्तानी' का बताया गया। मतलब यह कि ख्वाज़ा अहमद अब्बास की जिस मार्मिक फ़िल्म से अमिताभ का चित्रपट सफ़र शुरू हुआ, उसका दर्ज़ा अब सिर्फ़ उनकी एक कमा न पाने वाली फ़िल्म का है। हम लोग प्रगतिशील विचारधारा में विश्वास रखते हैं और भविष्य को, नूतन को आशा और अनुराग से देखते हैं या देखना चाहते हैं। पर इस मूल्य या मूल्यांकन पद्धति से तो स्तब्ध ही हुआ जा सकता है। खैर, चलो, अमिताभ 70 के हुए पर अभी काफ़ी दिन काफ़ी कुछ बिकवाते चलेंगे और फिर उनके सुपुत्र और पुत्रवधू तो 'बेचन' परिवार की परंपरा को आगे बढ़ाएंगे ही। बहरहाल, 'सात हिन्दुस्तानी', 'आनंद', 'अभिमान', 'आलाप' और उन जैसी कुछ और गिनीचुनी फिल्मों के कलाकार अमिताभ को जन्मदिन की बधाई कि उन्होंने सार्थक और बेहतर सिनेमा में बड़े योगदान की उम्मीदें तो जगाई ही थीं, पूरी नहीं हुईं तो कोई बात नहीं। और कौन जाने, भविष्य में क्या हो।

Friday, March 9, 2012

होली मुबारक़

रंगों की नींद और रंगों के सपने,
रंगों का सूरज और रंगों की किरणें,
रंगों की धूप और रंगों की छाँव,
रंगों के फूल और रंगों के गाँव.

होली बहुत-बहुत मुबारक़.

Monday, March 5, 2012

विश्व पुस्तक मेला - 2012

विश्व पुस्तक मेले में आख़िरी दो दिनों में जाना हुआ. साहित्यिक मित्रों में कहानीकार राजेन्द्र दानी मिले और रमेश उपाध्याय जी से उनके शब्द-संधान प्रकाशन के स्टाल पर ही भेंट हुई. प्रज्ञा, राकेश और संज्ञा से भी. संज्ञा की पहली किताब उसके हस्ताक्षर के साथ मिली. बहुत से साथी इस आयोजन के अन्य प्रसंगों यथा पुस्तक विमोचन-लोकार्पण आदि में भी मनोयोगपूर्वक सहभागिता करते हैं, पर मेरा मन इन सबसे अब बिलकुल उचट गया है. किताबों के बीच घूमना, उन्हें देखना, छूना, उलटना-पलटना, यथासंभव ख़रीदना - इतना अपने लिए अब काफ़ी रहता है. अकेले होने के दुःख तो जगजाहिर हैं, पर सुख भी होते हैं. और दिल्ली में तो अकेलापन एक नियामत ही है.    

Tuesday, February 21, 2012

मीडिया के भीतर

यह सही है कि मीडिया का समकालीन परिदृश्य उस कल्पना से बिलकुल अलग है, जो इस दुनिया में आने की तैयारी के समय हम कुछ लोगों के मन में थी. 'हम कुछ लोग' भी शायद मैं भावविभोर हो कर ही ज़्यादा कह रहा हूँ, क्योंकि कई साथी जिस तरह सफल प्रमाणित हुए हैं, वह बताता है कि यथार्थ की उनकी समझ और उसके दांवपेंचों पर पकड़ की उनकी योजना तब भी सटीक ही रही होगी. पर फिर भी आदर्शवाद और मिशन आदि भाव युवा पत्रकारों के मन में कमोबेश रहते थे. आज के युवा मीडियाकर्मियों के मन में ये बिलकुल नहीं हैं, ऐसा कहना बल्कि सोचना भी बड़ा ग़लत और अन्यायपूर्ण होगा. लेकिन आज सफलता के सूत्र अपेक्षाकृत जल्दी सिद्ध कर लेने का दबाव तो है, जो स्वयं ही इस विद्या की बारीकियां सिखा देता है.

मीडिया के संसार में आने के बाद वरिष्ठों और दिग्गजों में से कई के चतुर चेहरे तो लगातार देखे हैं, जब-जब पत्रकारिता के विद्यार्थियों और युवतम साथियों से साक्षात्कार के अवसर आए हैं, आश्वस्ति भी हुई है, आशंका भी.

आने वाली दुनिया में अभी तो हम मौजूद हैं. क्या छोड़ कर जाते हैं, क्या रच कर, क्या बिगाड़ कर, यह तय होना है.

Sunday, February 19, 2012

सपनों की सनद

सपने बदलते हैं. वे भी जो हम देखना चाहते हैं और वे भी जो आँखों में खून की तरह चुभते हैं. वे भी जो जीवन का मतलब और उम्मीद थे. वे भी जो सब कुछ ख़त्म होने का फ़ैसला सुनाते थे. सपने जब सब कुछ संभव था. सपने जब ज़्यादातर शिकायतें बची हैं.

अपनी ज़िंदगी से कुछ ख़ास उम्मीद बची हो कि न बची हो, पर कविता से तो है. एक कविता फिर सांस लेने लगी है. शायद जीवन के उन आख़िरी मौकों में से एक, जब कवितायें दोबारा सांस ले पाती हैं. अद्भुत है कि कवितायें सपनों के बिना नहीं होतीं.

सभी दोस्तों को याद करता हूँ. मां को, पिता को, स्कूल को, विश्वविद्यालय को. नौकरी के शुरुआती सालों को.

कल सनद तो रहेगी.

Tuesday, February 14, 2012

अलखनंदन के बिना दुनिया

इधर कई दिनों से बेहद दौड़-भाग चल रही थी. रविवार का पूरा दिन एक सम्मेलन में भागीदारी में गया था और फिर उसके बाद के डिनर से निबट कर कुछ देर रात ही घर आना हुआ था. सोमवार की सुबह एक अजीब सपना देख रहा था कि बहुत दिनों के बाद पापाजी और फिर मां से फ़ोन पर बात कर रहा हूँ और रोने लगता हूँ और सपने में ही याद आ गया कि अब तो न मां हैं न पापाजी. इस सब पर लगभग superimpose होता हुआ पत्नी का स्वर आया - "अखबार में छपा है कि अलखनंदन का देहांत हो गया."

दु:स्वप्न जारी है.

स्मृतियों में आपाधापी मची है. साल था 1979. एक भीषण निजी आघात से जूझता मैं जबलपुर में ज्ञानरंजन के पास जा पहुंचा था. उनके कहने पर हरिशंकर परसाई के घर आयोजित एक गोष्ठी में गया था. गोष्ठी के बाद भी ज्ञानजी के पास ही बैठा था कि उन्होंने कहा - "ज़रा अपने हमउम्र लोगों के साथ मिलना-जुलना कीजिए." वहां मौजूद हमउम्रों के साथ परिचय हुआ. ये थे अजित हर्षे और अशोक शुक्ल. इनके साथ टंगे-टंगे मैं जबलपुर के तब के एक जनप्रिय अड्डे श्याम टाकीज़ पर पहुंचा. अजित ने अशोक से कहा - "अभी अलख आने वाला है. आज उसे छोड़ना नहीं है. उसके नाटक की सफलता को celebrate करना है और उससे दोसा खाना है. मैंने अपने आप को कुछ अवांछित महसूस करते हुए कहा कि मैं चलता हूँ. पर मुझे रोका गया और मैं रुक गया. अलखनंदन का आगमन हुआ. थोड़ा दोहरा शरीर. गोल और अक्सर गुस्सैल चेहरा जिस पर विद्रूप भरी हंसी भी ख़ूब फ़बती थी. बैठी हुई सी पर ख़ासी तनी और खड़ी हुई आवाज़, जिससे गालियों और फ़ब्तियों के फूल भी लगातार झड़ते थे और कभी-कभी बेहद कोमल कवितायें भी. बढ़े  हुए बाल और बढ़ी हुई दाढ़ी से मुझे विशेष अपनापन लगा क्योंकि मेरी अपनी भी तब यही धजा होती थी. कुछ धौलमस्ती और खींचतान के बाद हम करमचंद चौक वाले इंडियन काफ़ी हाउस में थे और दोसे का इनाम मेरे हिस्से में भी आया था.

उसके बाद. उसके बाद? एक ऐसा दोस्त बना जिसने ज़िंदगी को जैसे झकझोर के रख दिया. तब विवेचना की ओर से होने वाले अगले नाटक 'इकतारे की आँख' का rehearsal चल रहा था. हर शाम वहां जाना, उसका हिस्सा बनना और ख़ुद को खोना-पाना. ढेर सारी बातें और लम्बी कड़वी बहसें. दोस्त के भीतर जो कुछ उसे कमज़ोर लगता था, उस पर वह लगभग निर्मम प्रहार करता था. अलख की दोस्ती में एक धक्कामुक्की हमेशा शामिल रहती थी. चौंकाना, चुनौती देना और आगे-आगे धकेलना. और इसके साथ ही वह आपके लिए उस तरह बेचैन भी रहता था जैसे पिता अपने बच्चे के लिये. और इस सबके बीच इस रूखे से लगने वाले आदमी की अद्भुत सृजनात्मकता और सरोकारों को देखना और बहुधा चमत्कृत रह जाना. उससे खूब लड़ना, झींकना, कोसना और साथ ही उसके व्यक्तित्व की तेजस्विता पर जैसे मंत्रमुग्ध रह जाना. 

यह बात अभी चलेगी. हम उसके पुराने साथी और मित्र तो अवाक और स्तब्ध हैं. इतना जीवित आदमी गया कहाँ?

अपनी ही एक कविता की पंक्तियाँ याद आ रही हैं: -

"जो नहीं मरे ऐन सामने
कभी नहीं लगते
पूरी तरह मरे हुए"

Saturday, February 4, 2012

एक टुकड़ा रोशनी का

अपनी एक छोटी सी कविता यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ -

वह कहीं से
एक टुकड़ा रोशनी का
ढूंढ लाया
और उसको आंज कर
आँखें उठाईं
सात पर्दे
बात ही की बात में
ग़ायब हुए सब
धूप की
फुलवारियों की
बात फिर सोची गई है.

Monday, January 2, 2012

नववर्ष-२०१२

आगत का स्वागत, व्यतीत को विदा, इच्छाओं-स्वप्नों की फिर नयी कथा.
नववर्ष-२०१२ हेतु हार्दिक शुभकामनायें.

जो ऊपर लिखा है, उसे मैंने आज दिन में यानी १ जनवरी, २०१२ के दिन में मित्रों को एस.एम.एस. शुभकामनायें भेजने के लिए सोचा था और कुछ को भेजा भी पर मेहरबानी मोबाइल प्रणाली की आंतरिक समस्याओं या विधान की कि एक भी गया नहीं. खीझ और उम्मीद के बीच कुछ और जुड़ा और अब तक इतना हुआ है: -

आगत का स्वागत, व्यतीत को विदा, इच्छाओं-स्वप्नों की फिर नयी कथा.

हंसमुख अंधियारों से दोस्ती खिली;
दुनिया अपनी धुन की राह पर चली.
फूलों की पहचान खो रही मगर
नदी तीर हवा लगे अब भी भली.

अभी अंत नहीं, अभी और है व्यथा.

बाकी और कुछ हो न हो, यह जान कर काफ़ी चकित, कुछ पुलकित और कुछ आशंकित भी हूँ कि छंद में कुछ लिख डालने की स्थिति पूर्णतः समाप्त नहीं हुई है. चिंता यों है कि तुकबंदी से दूर रहने का इतने वर्षों का प्रयास, क्या हो जाएगा वृथा.

विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास है 'खिलेगा तो देखेंगे'. आमीन.