Saturday, August 15, 2020

"मन हो निर्भय जहां'

दो वर्ष पहले स्वतंत्रता दिवस पर अपने शुभकामना संदेश में मैंने कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की अमर रचना का यह अंश उद्धृत किया था-

"मन हो निर्भय जहां,
ज्ञान मुक्त हो जहां,
ऊंचा हो शीष जहां,
भारत को उसी स्वर्ग में तुम जाग्रत करो।"

कविगुरु की यह कविता आज और भी प्रासंगिक हो उठी है। इतनी तरह के भय, इतनी आशंकायें, इतने उलझे सवाल आज हमें, हमारे देश को, समूची दुनिया को घेरे हुए हैं। दूरियां सर्वव्यापी हो गई हैं। अस्तित्व और गरिमा पर, जीवन और आजीविका पर, स्नेह और अपनेपन और एकजुटता पर इतने प्रश्नचिह्न लगे हुए हैं, चेतना और संवेदना इस क़दर खुरची जा रही हैं कि भय से मुक्ति, शीष ऊंचा कर पाने का स्वाभिमान और ज्ञान की निर्झर मुक्त धारा के सभी तक पहुंच पाने का वह विराट और आत्मीय आदर्श आज और भी अनिवार्य हो उठा है। मनुष्यता लड़ेगी मानव मूल्यों को बचाने और सहेजने के लिये, हर तरह के शोषण को समाप्त कर न्याय, समता और सबके भाईचारे को हासिल करने और बनाए रखने के लिये।

74वें स्वतंत्रता दिवस के मंगलमय अवसर पर सभी स्वाधीनता सेनानियों, उनके संकल्पों और बेहतर भारत के उनके सपने को नमन। आप सब मित्रों को सभी स्वजनों-परिजनों सहित बहुत-बहुत मुबारकबाद और अशेष शुभकामनायें। 

Wednesday, August 12, 2020

जाना 'राहत' का

कल 11 अगस्त को फिर एक बहुत बुरी ख़बर आई। अज़ीम तरक़्क़ीपसंद शायर राहत इंदौरी कोरोनाग्रस्त थे और दिल के दौरे से कल उनके गृहनगर इंदौर के एक अस्पताल में उनका इंतक़ाल हो गया। उनकी लोकप्रियता भाषायी सीमाओं में क़ैद नहीं थी और इसका प्रमाण उस शोक की लहर में मिलता है, जो कल से सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर दिखाई दे रही है।

जनाब राहत इंदौरी साहब को पढ़ने और मीडिया पर देखने-सुनने के मौक़े तो बहुत से आए, पर रूबरू उनका क़लाम सुनने का अवसर 1986 में छतरपुर (मध्य प्रदेश) में मिला था। अगस्त, 1986 में आकाशवाणी, छतरपुर की स्थापना के दस वर्ष पूरे हुए थे और तत्कालीन कार्यक्रम प्रमुख श्री बांकेनन्दन प्रसाद सिन्हा ने 'दशक दर्पण' शीर्षक से लगातार सात दिनों तक मंचीय कार्यक्रमों के आयोजन का निर्णय किया - कवि सम्मेलन, मुशायरा, बुन्देली कवि सम्मेलन, शास्त्रीय, सुगम और लोक संगीत सभायें तथा 'युववाणी' का मंचीय कार्यक्रम। मुशायरे में राहत साहब भी पधारे थे। निज़ामत उनसे ही कराने का विचार सिन्हा जी को मुशायरा शुरू होने के कुछ पहले आया। बाक़ी शोअरा होटल से कार्यक्रम स्थल पर आ चुके थे, पर राहत साहब नहीं आए थे और अब उनका शुरू से मौजूद रहना ज़रूरी था। सिन्हा जी ने मुझे भेजा कि मैं होटल से उन्हें साथ लिवा लाऊं और संचालन के लिये राज़ी भी कर लूं। ख़ैर, मैं पहुंचा तो वे अण्डों और पराठों का नाश्ता कर रहे थे। कहा, आप भी लीजिए। मैंने माफ़ी मांगी और कहा कि मुशायरा शुरू होने के पहले उन्हें वहां पहुंचना ही है, क्योंकि निज़ामत उन्हें ही करनी है। बोले, ये सब फ़ालतू काम मैं नहीं करता। किसी तरह उन्हें मनाया और वक़्त पर पहुंच कर मुशायरा शुरू भी हो गया। राहत साहब ने बेहतरीन संचालन किया, पर जब आख़िरी शायर के पहले उन्हें अपना क़लाम पेश करने की दावत दी गई, तो पहला वाक्य उन्होंने यह कहा - रेडियो वालों के लिहाज़ में अब तक मैं यह दोयम दर्ज़े का काम कर रहा था, अब कुछ देर अपनी पसंद का असली काम करूंगा। और फिर, जैसा कहते हैं, उन्होंने मुशायरा लूट लिया। उनकी शायरी बेहतरीन कथ्य और अंदाज़े-बयां की शायरी है और इसीलिये तहत में सादगी से पढ़ कर वे तरन्नुम वालों पर भारी पड़ते थे। इस स्मरण का अंत मुझे बहुत पसंद उनके उस शेर से कर रहा हूं, जो पहली बार मैंने छतरपुर के उसी मुशायरे में सुना था।

"कभी दिमाग़ कभी दिल कभी नज़र में रहो,
ये सब तुम्हारे ही घर हैं किसी भी घर में रहो।"

सच, राहत इंदौरी साहब उन तमाम घरों में बने रहेंगे, जो हमारी दुनिया को बेहतर बनाने के लिये उनकी कविता ने रचे हैं। विनम्र श्रद्धांजलि।

Monday, August 10, 2020

परसाई जी के बाद पच्चीस बरस

आज 10 अगस्त को हिन्दी में व्यंग्य के सर्वाधिक समर्थ हस्ताक्षर हरिशंकर परसाई जी की पुण्यतिथि है। उनका देहावसान 10 अगस्त, 1995 को जबलपुर में नेपियर टाउन स्थित उनके आवास पर हुआ था, जहां वे अपनी छोटी बहन और उनके बच्चों के साथ रहते थे। परसाई जी ने स्वयं विवाह नहीं किया था और उसका मुख्य कारण हम लोग यही जानते हैं कि कम उम्र में उनकी इन बहन के पति का निधन हो गया था और उसके बाद उनकी तथा उनकी संतानों की ज़िम्मेदारी परसाई जी ने उठा ली थी, जो जीवनपर्यन्त चली। एक विचित्र और कारुणिक संयोग यह था कि 10 अगस्त, 1995 को रक्षाबंधन का पर्व था।

मैं 1994 में जबलपुर से स्थानांतरित हो कर जगदलपुर चला गया था, पर पर्व-त्योहार पर जबलपुर आना हो ही जाता था। रक्षाबंधन पर कई घरों में जाना होता था, जहां कहीं मेरी मुंहबोली बहनें मुझे राखी बांधती थीं और कई घरों में मेरी पत्नी और दोनों नन्ही बेटियां अपने मुंहबोले भाइयों को राखी बांधती थीं। उस दिन मेरे स्कूटर पर हमारा परिवार लगभग नगर परिक्रमा ही कर लिया करता था।

जगदलपुर से जबलपुर की बरास्ते रायपुर मेरी वह यात्रा रात्रि जागरण के साथ भोर में सम्पन्न हुई थी और कुछ देर कमर सीधी कर लेने के इरादे से मैं लेटा तो पत्नी से कहा कि लगभग 11 बजे जगा देना, ताकि राखी परिक्रमा शुरू हो सके। सो जब लगभग साढ़े आठ बजे ही जगाया गया, तो कुछ खीझ ज़ाहिर की। पत्नी ने गम्भीर स्वर में कहा कि अभी-अभी प्रभात जी (प्रभात वर्मा, जो आकाशवाणी, जबलपुर में वरिष्ठ उद्घोषक थे) का फ़ोन यह बताने के लिये आया था कि परसाई जी नहीं रहे।

तुरत-फुरत तैयार हो परसाई जी के घर पहुंचा। बहुत बार जा चुका था, पर उस दिन लगा कि जैसे एक लगभग अनजान से घर में जा रहा हूं। जिस बैठक कक्ष में परसाई जी अपने बिस्तर पर कभी बैठे, कभी अधलेटे और कभी लेटे-लेटे ही मिलते थे और वह सब कुछ कहते-सुनते थे, जिसने हमारी चेतना और दृष्टि को गढ़ा था, वहीं उनके पार्थिव शरीर को रखा गया था। शव-यात्रा की तैयारी शुरू हो चुकी थी। वहां बहुत से अपने बड़े-छोटे और हमउम्र साथी मिले। सन्नाटे में हमारी आपसी फुसफुसाहटें हमें ही बीच-बीच में चौंका देती थीं।

पर वहां अनेक ऐसे और काफ़ी महत्वपूर्ण से लोग संचालक मुद्रा में मौजूद थे, जिन्हें वहां कभी देखना तुरन्त याद नहीं आ रहा था। धीरे-धीरे समझ में आया कि ये ज़िला प्रशासन के अधिकारीगण थे और ये इसलिये वहां थे कि परसाई जी का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किए जाने की मध्य प्रदेश शासन की ओर से घोषणा हो चुकी थी और ये लोग उसी का बन्दोबस्त देखने आए थे। उसके बाद जैसे वहां एक चुपचाप परायापन सा व्यापता महसूस होने लगा।

शव-यात्रा दोपहरी ढलने के कुछ पहले नर्मदा तट पहुंची - सम्भवत: ग्वारी घाट के पास (जबलपुर में नर्मदा के प्रमुख घाटों के नाम ग्वारी घाट, तिलवारा घाट, जिलहरी घाट आदि हैं)। मैं अपने स्कूटर से गया, जिसकी परिक्रमा का पथ उस दिन छिन्न-भिन्न हो गया था, जैसे और भी बहुत कुछ। चिता सजी, मध्य प्रदेश पुलिस के जवानों ने सलामी दी और अग्नि प्रज्ज्वलित हो उठी। धरती-आकाश धुंए से जुड़ गए। हम सब बहुत थके, बहुत टूटे-हारे चिता के आसपास बिखरे-बैठे रहे। मैंने कड़वाती आंखें बंद कर लीं और एक दु:स्वप्न भरी अधजगी नींद में डूबने-उतराने लगा। हम सब के वैचारिक अभिभावक परसाई जी चले गए। जब उनकी इतनी ज़रूरत थी। कितनी सूनी, कितनी ख़ाली हो गई थी हमारी दुनिया!

कि एक संबोधन सा सुन कर चेतना लौटी। देखा, एक उत्साही नौजवान हाथ में माइक लिए मेरे पास खड़ा है और मुझसे अनुरोध कर रहा है कि मैं सिटी-केबल के लिये अपनी श्रद्धांजलि रिकॉर्ड करा दूं। उसके पीछे उसका कैमरामैन बहुत गम्भीरता और महत्ता के साथ सन्नद्ध था। मैं कुछ अचकचाया तो मुझे बताया गया कि कई लोग तो रिकॉर्ड करा भी चुके थे और कुछ ख़ास-ख़ास लोगों से ही यह अनुरोध किया जा रहा था। मैं काफ़ी चैतन्य हो उठा और कुछ कहा भी। एक शरमाता सा ख़्याल भीतर था कि बाल बहुत बिखरे हुए तो नहीं और चेहरा बहुत ज़्यादा सूखा-सा तो नहीं। फिर लगा कि अगर हाल बेहाल दिख रहा है, तो अवसर के उपयुक्त ही है।

इस बीच चिता परिक्रमा शुरू हो गई थी। फिर एक संक्षिप्त शोक-सभा हुई, जिसमें एक-दो लोग बोले और फिर शासन के प्रतिनिधि अधिकारी ने एक बयान अटकते हुए और कुछ ग़लत उच्चारणों के साथ पढ़ा, जिसमें 'महान साहित्यकार पद्मश्री श्री हरिशंकर परसाई' के लेखन की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी। अचानक मुझे याद आया कि परसाई जी ने अपने एक निबन्ध 'ज़िंदगी और मौत का दस्तावेज़ (वसीयतनामा फ़रमाइशी)' में अपनी मृत्यु के बाद के सम्भावित तमाशे का अद्भुत वर्णन किया था। मेरे बदन में बिजली सी दौड़ गई। लगा - देखो, शुरू हो गया।

इस बीच वहां सूचना दी गई कि औपचारिक विधिवत शोकसभा फ़लां-फ़लां तारीख को फ़लां-फ़लां जगह इतने बजे होगी। सभी लोग वहां भी पधारें और अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करें। हम सब लोग लौटने के लिये अपने-अपने साधन की ओर खिसकने लगे। कि भागा हुआ सिटी-केबल वाला युवा आया और बताया कि 'श्रद्धांजलि कार्यक्रम' रात इतने-इतने बजे टेलीकास्ट होगा। अनेक लोग रुचिपूर्वक रुक गए। कुछ ने प्रसारण समय की फिर पुष्टि कराई। मेरा भी हाथ अपने बालों को कुछ संवारने की मुद्रा में उठने लगा और एक सहमी हुई पुलक भी थरथराने लगी। फिर ख़ुद पर कुछ गुस्सा आया, कुछ शर्म आई।

और तभी समझ में आ गया कि परसाई जी कहीं नहीं गए हैं, हमेशा साथ रहेंगे। वे बाहर-भीतर के सभी विद्रूप उजागर करते रहेंगे और तमाम ज़रूरी लड़ाइयों की समझ और तैयारी में मदद करते रहेंगे। हां, जो थप्पड़ लगाए जाने हैं, ख़ास कर अपने ही गालों पर, उनके लिये अब ख़ुद की ही हथेलियां इस्तेमाल करनी होंगी।

आज 25 बरस बीत गए।