आज हिंदी के अब तक के सबसे बड़े कथाकार प्रेमचंद की 140वीं जयंती है. 8 अक्टूबर, 1936 को कलम का यह अद्वितीय और जांबाज़ सिपाही इस दुनिया को छोड़ गया. उनकी शवयात्रा में गिने-चुने लोग ही शामिल थे और किसी राहगीर के सवाल कि यह किसकी अर्थी है, का किसी दूसरे ने यों जवाब दिया था - शायद किसी मुदर्रिस (शिक्षक) की. शिक्षक तो प्रेमचंद थे ही, हैं ही, जैसा कि हर महान साहित्यकार होता है. पर उनकी शिक्षा वर्तमान और यथार्थ को जानने-समझने की ही नहीं, उसे बेहतरी की ओर ले जाने के लिये लोकमानस को तैयार करने की भी थी. अप्रैल, 1936 में लखनऊ में संपन्न प्रगतिशील लेखक संघ के पहले राष्ट्रीय सम्मलेन में अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा था कि साहित्यकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है. उन्होंने यह भी कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल है.
प्रेमचंद के लेखकीय व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं और वे जनवादी साहित्य में विश्वास रखने वालों के लिये प्रेरणा के अक्षय स्रोत हैं. मुझे एक बात जो कभी चमत्कृत करना बंद नहीं करती, वह यह है कि बड़ी सीधी-सरल किस्सागोई शैली से आरम्भ करने के बाद वे लगातार लिखते-लिखते बेहतर होते गए. वे दुनिया के उन बहुत कम लेखकों में है, जिनकी अंतिम रचनायें उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनायें हैं. 'गोदान' और 'कफ़न' इसका प्रमाण हैं (उपन्यास 'मंगलसूत्र' अधूरा रह गया था). अमूमन जो लोग लम्बे समय तक लिखते हैं और ख़ूब लिखते हैं, उनके रचनात्मक आवेग और कौशल में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं. पर प्रेमचंद की रचना-यात्रा की एक ही दिशा थी - ऊर्ध्वमुखी. और वे केवल 56 साल की उम्र में चले गए थे. और रहते तो न जाने कौन-कौन सी और भी नयी ऊंचाइयां और गहराइयाँ हासिल कर के जाते.
प्रेमचंद के रचना-संसार की बहुत चर्चा दुनिया भर में हुई है. हिंदी के वे निस्संदेह सबसे अधिक पढ़े गए गद्य-लेखक हैं. संसार की अनेक भाषाओं में उनकी कृतियों के अनुवाद हुए हैं. पर अभी उनकी कई रचनाओं पर और ज़्यादा ध्यान दिए जाने की गुंजाइश है. ऐसा कई बार होता है (और प्रेमचंद के साथ भी हुआ है) कि विपुल मात्रा में सिरजने वाले की कुछ कृतियों पर ही बार-बार ध्यान जाए, बात हो और उनका लिखा बाक़ी काफ़ी कुछ अपेक्षाकृत अलक्षित ही रह जाए. इस मुद्दे पर भविष्य में और लिखूंगा.
आज मेरे लिये प्रेमचंद जयंती एक और रोमांच ले कर आई. मैं जन्म, पैतृक स्थान, शिक्षा आदि के नाते से उत्तर प्रदेश का हूँ, पर मेरे लेखकीय व्यक्तित्व का परिष्कार मध्य प्रदेश में हुआ. मेरी प्रगतिशील लेखक संघ के साथ संलग्नता भी 1979 में जबलपुर से शुरू हुई थी. हरिशंकर परसाई (जिनका अद्भुत निबंध 'प्रेमचंद के फटे जूते' आज भी हिला जाता है), ज्ञानरंजन, मलय जी जैसी विभूतियों के मार्गदर्शन में यह यात्रा आगे बढ़ी. मध्य प्रदेश (और अब जिसका एक भाग छत्तीसगढ़ बन चुका है) के विभिन्न स्थानों पर रहते हुए यह सम्बन्ध दृढ़तर होता गया. फिर भौगोलिक दूरी बहुत कुछ छीन ले गई. आज फिर से मैं मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के आयोजन में सहभागिता का सौभाग्य पा सका, जब प्रेमचंद जयंती के अवसर पर आयोजित ऑनलाइन समागम में मैं जुड़ सका. यह राजेंद्र शर्मा जी और शैलेन्द्र शैली जी के सौजन्य से संभव हो पाया. मुझे लगा, मैं वापस घर पहुँच गया हूँ.
क्या इस वापसी के बाद बहुप्रतीक्षित नयी शुरुआतें होंगी? पुरोधा प्रेमचंद का आशीर्वाद चाहिए.