Wednesday, June 5, 2013

महरी का गीत

शायद 1980 का साल था। जबलपुर में आनंद नगर में रहता था। वरिष्ठ (तब भी वे वरिष्ठ थे) कवि मलय जी मेरे घर आए थे। मैंने तब हाल ही में रचा अपना एक गीत उन्हें सुनाया 'घर में आए महरी'। मलय जी मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के उद्भट विद्वान थे और हैं। उन्हें देख-सुन कर कई लोगों को मुक्तिबोध का स्मरण हो आता रहा है। मलय जी ने कहा - "पार्टनर, इसमें यथार्थ अपनी समूची जटिलता और ऐतिहासिकता के साथ नहीं आ पाया है। इस पर और काम करो।" फिर मैं उनको अपनी साइकिल पर पीछे बिठा कर उनके घर पहुंचाने गया। लगभग पूरे रास्ते उनके विवेचन से लाभान्वित होता रहा।

दो-तीन दिनों बाद मलय जी किसी समागम में मिले। मुझे देख कर सीधे मेरे पास आए और बोले - "पार्टनर, उस गीत में कुछ फेरबदल मत करना। तब से जब-जब अपने घर काम वाली बाई को देखता हूँ, तो तुम्हारी रचना की अलग-अलग पंक्तियाँ याद आती हैं। वह जैसी है, ठीक है।" स्वाभाविक है, सुन कर अच्छा लगा, यद्यपि पूरी आश्वस्ति नहीं हुई।

इसके बाद, वर्ष 1989 या 1990 की बात होनी चाहिये, खैरागढ़ में कविता केन्द्रित कार्यक्रम 'ऋतु संहार' में भागीदारी का मौका मिला। वहां मैंने अन्य कुछ कविताओं के साथ यह गीत भी सुनाया। वरिष्ठ (सदा से) आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा - "यह तो भोजपुरी लय का गीत है, गा कर क्यों नहीं सुनाते?" मुझे कविता-पाठ के दौरान उसका गाया  जाना बहुत प्रिय नहीं है, पर मैंने गाने जैसा कुछ किया। वह जैसा भी बना हो, तब से अब तक डॉ. त्रिपाठी जब भी मिलते रहे हैं, कई बार सालों के अंतराल के बाद, अगर मुझे पहचान पाते या जाते हैं, तो उन्हें 'महरी का गीत' याद आ जाता है और मैं अनिर्वचनीय सुख और आभार में डूब जाता हूँ।

अपने बारे में या अपनी रचना के बारे में ख़ुद इस तरह लिखना उचित नहीं है, इसमें अहमन्यता की गंध आती है, जिसका कम से कम मुझे कोई अधिकार नहीं है। पर कभी-कभी ऐसी दुर्बलता के लिए क्षमा माँगी जा सकती है।

बहरहाल, वह गीत यहाँ प्रस्तुत है: -

घर में आए महरी,
कुछ सुनती, कुछ बहरी,
ज़रा तनी सी, आख़िर ठहरी
चौका-बासन महरी।

घर में आए महरी,
बर्तन मांजे महरी,
झाडू ले कर, पोंछा ले कर,
झुकी-झुकी सी महरी।

बेटी लाए महरी,
काम सिखाए महरी,
आधे बर्तन उसे थमा कर,
थकी-थकी सी महरी।

हाथ बंटाए महरी,
चावल बीने महरी,
चावल के दानों पर जैसे
रुकी-रुकी सी महरी।

क्या पाएगी महरी,
क्या खाएगी महरी,
खैनी मलती, होंठ सिकोड़े,
घने सोच में महरी।

घर में आए महरी,
कुछ सुनती, कुछ बहरी,
ज़रा तनी सी, आख़िर ठहरी
चौका-बासन महरी।

Saturday, May 18, 2013

18 मई


18 मई, 1974 को पोखरन में भारत द्वारा पहला परमाणु परीक्षण किया गया था। तब मैं विश्वविद्यालय में बी.एस.सी. का द्वितीय वर्ष का छात्र था तारीख इतनी स्पष्टता से याद है, यानी घटना का मन पर ख़ासा असर पड़ा रहा होगा। संभवतः कुछ गर्व की या काफ़ी गर्व की अनुभूति रही हो, क्योंकि तब आलोचनात्मक विवेक की सीमायें उम्र के हिसाब से रही होंगी।

पर मज़े की बात यह है कि बाद के वर्षों में 18 मई की तारीख मुझे भीतर तक याद तो बनी रही, लेकिन 18 मई, 1976 की वजह से। 18 मई को मेरी बी.एच.यू. की एक सहपाठिनी और मित्र का जन्मदिन होता है। स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर वह वाराणसी के ही राजघाट स्थित वसंत कॉलेज में बी.एड. की पढ़ाई कर रही थी और वहीं हॉस्टल में रहती थी। मैं बी.एच.यू. में ही पत्रकारिता का छात्र हो गया था। 18 मई, 1976 को मुझे इच्छा हुई कि मैं उसे जन्मदिन की शुभकामना दूं। तब फ़ोन ही अति दुर्लभ होते थे, मोबाइल तो तब संसार में ही शायद नहीं था। कितने अच्छे दिन थे वे!

सो मैं अपनी प्यारी खटारा साइकिल पर चल पड़ा। बी.एच.यू. से वसंत कॉलेज की अच्छी-ख़ासी दूरी है - कम से कम 10 किलोमीटर तो होगी, बल्कि ज़्यादा ही। धुआंधार लू के थपेड़ों को झेलते-झेलते यात्रा हुई और उसके दौरान लगभग चार-पांच बार रुकना पड़ा, क्योंकि साइकिल के नंबर की जांच यातायात पुलिस द्वारा उस दिन बड़े उत्साह से की जा रही थी (जी हाँ, तब साइकिल के नंबर भी होते थे और उनकी जांच भी होती थी) और चूंकि मेरी साइकिल नंबर-विहीन हुआ करती थी,  बार-बार दंड के तौर पर (शायद एक रूपये का) जुर्माना लगता जा रहा था। राजघाट पहुँचते-पहुंचते शाम ढलने को हो आई थी और जेब लगभग ख़ाली हो चुकी थी।

उन दिनों बनारस में या करीब-करीब अधिकाँश देश में टेलीविज़न नहीं था और सिनेमा हाल में ही वस्तुओं की विज्ञापन फ़िल्में सामान्य लोग देख पाते थे। कम देख पाते थे, तो उनका ग्लैमर और आकर्षण दूर और देर तक बना रहता था। कैडबरी की फ़ाइव-स्टार चॉकलेट नई-नई आई थी, ख़ूब विज्ञापित हो रही थी और जन्मदिन शुभकामना समर्पण यात्रा पर चलने के पहले ही इसका एक 'बार' मैंने (अपनी कठिन आर्थिक दुरवस्था में से गुंजाइश निकाल कर) साथ रख लिया था कि 'उसे' भेंट में दूंगा। लू में तपते-भुनते, कड़ी धूप  में हांफ़ते-तड़पते, पसीने से तरबतर वे क्षण आज कितनी ठंडक देते हैं।

बहरहाल जब पहुंचा, शाम ढल रही थी। मुझे इस तरह अचानक आया देख कर वह चौंक गई। उसकी कोई सहपाठिन भी उसके साथ थी। मुझे यह कहने में बड़ी शर्म सी आई कि मैं उसे जन्मदिन पर शुभकामना देने आया हूँ। शायद कहा कि ऐसे ही इधर से गुज़र रहा था और लगा कि चलो, मिल लूं। उसने कहा कि मिल सकने की अनुमति का समय तो अब ख़तम होने को है। मैंने कहा कि कोई बात नहीं, मुझे भी अब जाना ही है। फिर अचानक उसने पूछा, चाय पिओगे? मैंने कहा - हाँ, पी लूँगा। उसने पम्प स्टोव जलाया और चाय बनाई। चाय में हल्की सी मिट्टी के तेल की गंध बस गई थी, जो अब भी याद आ कर मन महका देती है।

समय बहुत ही ज़्यादा तेज़ी से भाग रहा था। मेरे चाय ख़तम करते-करते उसका चेहरा फिर चिंतातुर होने लगा था। मिलने की अनुमति का समय समाप्त हो चला था। मैंने कहा कि चलता हूँ। उसने कहा-ठीक है, जाओ। बाहर निकला तो दो क़दम वह साथ आई। साइकिल स्टैंड से उतार कर अचानक मैंने उसका नाम ले कर कहा, तुम्हें जन्मदिन बहुत-बहुत मुबारक़। उसने अचकचा कर मुझे देखा। मैंने शर्ट की जेब में हाथ डाला, फ़ाइव-स्टार चॉकलेट निकाली, जो घंटों से धूप और लू भुगत कर विचित्र अवस्था प्राप्त कर चुकी थी और उसकी ओर बढ़ा दी। वह क़यामत का पल था। उसने एक क्षण अबूझ दृष्टि से मुझे देखा और फिर चॉकलेट अपने हाथ में ले ली। सामने गंगा की अजस्र धारा बह रही थी। मैं लौट पड़ा।

लगभग 34 वर्ष बाद फिर उसका संपर्क सूत्र मिला। हम दोनों अब परिवार वाले हैं और अब हमारा पारिवारिक दोस्ताना है। शहर अलग-अलग हैं, पर यह तो मोबाइल का ज़माना है। साल-छह महीने में बातचीत हो जाती है।

पुनः संपर्क के बाद जब पहली 18 मई आई, तो मैंने उसे फ़ोन कर जन्मदिन की मुबारक़बाद दी। किसी ने, शायद पत्नी ने, किंचित व्यंग्य के साथ मेरी याददाश्त की तारीफ़ की कि इतने साल बाद भी 'सहेली' का जन्मदिन याद है। मैंने कहा कि 18 मई की तारीख़ तो याद रह ही जाती है, क्योंकि देश ने 1974 में इसी तारीख़ को तो अपना पहला परमाणु परीक्षण किया था, सो यह memory association का मामला है।

आज भी तो 18 मई है।

पलक की दीवार

आजकल पुरानी रचनाओं की यादें घुमड़ रही हैं। अपनी सबसे पहली लिखी ग़ज़ल यहाँ साझा कर रहा हूँ। इसकी भी धुन मेरे परम मित्र सुदीप कुमार भट्टाचार्य ने बनाई थी। सुदीप आज सपरिवार आया था। आजकल कोलकाता वासी है। सो यादों का सिलसिला जो चला तो 'पलक की दीवार' के आर-पार पहुंचा।

पलक की दीवार के आगे जहां ख़ामोश होगा,
बात तो बस इस ज़माने के लिये सोची हुई है।

कांपते हैं होठ कहने के लिए बातें ज़रूरी
और ज़रुरत उम्र के पथराव की थोपी हुई है।

बोलने का शोर साँसों में घुले, हों सोच मुर्दे,
ज़िंदगी ने आज की दी शर्त ये ओढ़ी हुई है।

जब कभी चुपचाप होता हूँ तो आती है क़यामत,
मेरी हर चुप्पी ने सोचों से कड़ी जोड़ी हुई है।

मौत की ठंडी छुअन हर सोच को जिंदा करेगी,
सोचने की ताक़तें इस ख़्याल में खोई हुई हैं।

Tuesday, April 30, 2013

ज़िंदगी के पास

कल भाई अनिल हर्षे की प्रेरणा से एक पुरानी ग़ज़ल की याद ने पंख फैलाए थे। उस पर मित्रों-स्नेहियों की सुखद प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही बहुत भाई। उनमें से एक थी सतना के पुराने साथी मणिमय मुखर्जी की, जो अब भिलाई वासी हैं और जैसे तब जनगीतों और जनपक्षधर रंगकर्म से अलख जगाते थे, वैसे ही अब भी सक्रिय और सन्नद्ध हैं। उन्होंने भी मेरा एक पुराना गीत याद दिलाया और मुझे और भी विस्मित करते हुए पूरे गीत का पाठ अपनी प्रतिक्रिया में लिख दिया। मेरा लोभ मित्रगण बढ़ा रहे हैं और उस गीत को भी मैं यहाँ दोहराने जा रहा हूँ।

इसे मैंने बी.एच.यू. यानि काशी विश्वविद्यालय के अपने छात्र जीवन के उत्तरार्द्ध में लिखा था। मेरे विद्यालय से ले कर युनिवर्सिटी सखा (और वह सखापन अब जीवन के उत्तरार्द्ध में भी जारी है), प्रतिभाशाली कवि-कथाकार और अद्भुत गायक तथा संगीत रसिक सुदीप कुमार भट्टाचार्य ने इसकी धुन बनाई थी और अधिकांशतः वही इसे गाते भी थे और हैं। पर इसे मणिमय और कुछ अन्य रंगकर्म के साथियों का स्नेह भी मिला था।

आओ, हम चलें ज़िंदगी के पास,
पहुंचेंगे हम ज़रूर,
होना न तुम उदास।

आँखें थकी खोई सी
हारे थके से लोग,
सपनों की लाशों को
काँधे उठाए लोग।

उनको बताएंगे, हारा नहीं प्रकाश,
पहुंचेंगे हम ज़रूर,
होना न तुम उदास।

साँसें लगन को भूल कर
क्यों बन चलीं मशीन,
बातें कहाँ पर जम गईं
काली हुई ज़मीन।

सबको दिखाएंगे, नीला अभी आकाश,
पहुंचेंगे हम ज़रूर,
होना न तुम उदास।

चले हज़ार कोस

भाई अनिल हर्षे ने मुझे लगभग चमत्कृत करते हुए मेरी एक पुरानी ग़ज़ल की मुझे याद दिलाई है। वैसे मुझे तो यह कभी भूली नहीं, पर अब अनिल जी की प्रेरणा से इसे यहाँ साझा कर रहा हूँ।

उस शक्ल की तलाश में चले हज़ार कोस,
झंखाड़ ग़र्द घास में चले हज़ार कोस।

हर सुबह ज़िंदगी के इंतज़ाम में गई,
हर शाम एक लाश ले चले हज़ार कोस।

तेवर उछालने की रस्म क़ीमती सुनी,
तो तेवरों की आस में चले हज़ार कोस।

बरबादियों के सिलसिले बनते चले मग़र
ज़िंदा वही उछाह ले चले हज़ार कोस।

सूरज की रोशनी तो नहीं पा सके अभी,
तारों की धूप-छाँव में चले हज़ार कोस।


(यह सब फेसबुक पर 2 9 अप्रैल को हुआ था। आज 30 अप्रैल को इसे यहाँ भी प्रस्तुत कर रहा हूँ।)

Wednesday, March 27, 2013

रंग गाएं

रंग आएं, रंग जाएं, रंग आँखों को लुभाएँ,
रंग झूमें, रंग गाएं, रंग तन-मन में समाएं,
रंग महकें, रंग छाएँ, रंग सपनों को सजाएं,
रंग, संग, उमंग मिल कर, धूम होली की मचाएं।

सबको सभी स्नेहियों-स्वजनों के साथ होली की असीम शुभकामनायें।

Wednesday, February 20, 2013

अब तक का आख़िरी पूरा गीत

आज अपना एक पुराना गीत बांटने का मन हो आया है: -

गीत लिखना चाहता हूँ
गीत लिखना चाहता हूँ।

शब्द आँखों में अड़े हैं
जीभ पर ताले जड़े हैं
हादसे इतने हुए हैं
रास्ते गुमसुम खड़े हैं

उम्र के इस मोड़ पर फिर भी
स्वयं को साफ़ दिखना चाहता हूँ
गीत लिखना चाहता हूँ।

फूल सब गिरते गए हैं
हौसले थिरते गए हैं
डगमगाते पाँव पीछे की तरफ़
फिरते गए हैं

राह जो आगे धकेले उस हवा के
संग सिंकना चाहता हूँ
गीत लिखना चाहता हूँ।

वैसे अब अहसास हो रहा है कि पुराना सही पर अब तक का मेरा यह आख़िरी पूरा गीत है।

Friday, February 1, 2013

काफ़ी पहले की अपनी एक ग़ज़ल

काफ़ी पहले लिखी (यह बात झलकती है) अपनी इस सीधी-सादी ग़ज़ल को न जाने क्यों फिर पढ़ने और पढ़वाने का जी हो आया है: - 

उसकी आँखों का उजियारा,
हर ले गया अँधेरा सारा।

सच में पहली बार मिला है,
ज़िंदा जिस्म, धड़कता नारा।

चौखट से जब पाँव निकाले,
कुंठाओं ने किया किनारा।

गीत गाँव में गूँज उठा है,
अपनी धरती, अम्बर सारा।