Tuesday, April 30, 2013

ज़िंदगी के पास

कल भाई अनिल हर्षे की प्रेरणा से एक पुरानी ग़ज़ल की याद ने पंख फैलाए थे। उस पर मित्रों-स्नेहियों की सुखद प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही बहुत भाई। उनमें से एक थी सतना के पुराने साथी मणिमय मुखर्जी की, जो अब भिलाई वासी हैं और जैसे तब जनगीतों और जनपक्षधर रंगकर्म से अलख जगाते थे, वैसे ही अब भी सक्रिय और सन्नद्ध हैं। उन्होंने भी मेरा एक पुराना गीत याद दिलाया और मुझे और भी विस्मित करते हुए पूरे गीत का पाठ अपनी प्रतिक्रिया में लिख दिया। मेरा लोभ मित्रगण बढ़ा रहे हैं और उस गीत को भी मैं यहाँ दोहराने जा रहा हूँ।

इसे मैंने बी.एच.यू. यानि काशी विश्वविद्यालय के अपने छात्र जीवन के उत्तरार्द्ध में लिखा था। मेरे विद्यालय से ले कर युनिवर्सिटी सखा (और वह सखापन अब जीवन के उत्तरार्द्ध में भी जारी है), प्रतिभाशाली कवि-कथाकार और अद्भुत गायक तथा संगीत रसिक सुदीप कुमार भट्टाचार्य ने इसकी धुन बनाई थी और अधिकांशतः वही इसे गाते भी थे और हैं। पर इसे मणिमय और कुछ अन्य रंगकर्म के साथियों का स्नेह भी मिला था।

आओ, हम चलें ज़िंदगी के पास,
पहुंचेंगे हम ज़रूर,
होना न तुम उदास।

आँखें थकी खोई सी
हारे थके से लोग,
सपनों की लाशों को
काँधे उठाए लोग।

उनको बताएंगे, हारा नहीं प्रकाश,
पहुंचेंगे हम ज़रूर,
होना न तुम उदास।

साँसें लगन को भूल कर
क्यों बन चलीं मशीन,
बातें कहाँ पर जम गईं
काली हुई ज़मीन।

सबको दिखाएंगे, नीला अभी आकाश,
पहुंचेंगे हम ज़रूर,
होना न तुम उदास।

चले हज़ार कोस

भाई अनिल हर्षे ने मुझे लगभग चमत्कृत करते हुए मेरी एक पुरानी ग़ज़ल की मुझे याद दिलाई है। वैसे मुझे तो यह कभी भूली नहीं, पर अब अनिल जी की प्रेरणा से इसे यहाँ साझा कर रहा हूँ।

उस शक्ल की तलाश में चले हज़ार कोस,
झंखाड़ ग़र्द घास में चले हज़ार कोस।

हर सुबह ज़िंदगी के इंतज़ाम में गई,
हर शाम एक लाश ले चले हज़ार कोस।

तेवर उछालने की रस्म क़ीमती सुनी,
तो तेवरों की आस में चले हज़ार कोस।

बरबादियों के सिलसिले बनते चले मग़र
ज़िंदा वही उछाह ले चले हज़ार कोस।

सूरज की रोशनी तो नहीं पा सके अभी,
तारों की धूप-छाँव में चले हज़ार कोस।


(यह सब फेसबुक पर 2 9 अप्रैल को हुआ था। आज 30 अप्रैल को इसे यहाँ भी प्रस्तुत कर रहा हूँ।)