Saturday, February 15, 2020

रेडियो: दोस्त पूरी दुनिया का

13 फ़रवरी को विश्व रेडियो दिवस था. दुनिया भर में फैली रेडियो बिरादरी का अपना उत्सव.
एक सदी से अधिक बीत चुकी है, जब हमारी दुनिया में एक नये मेहमान ने दस्तक दी थी. ज़्यादातर लोगों के लिये वो एक अनोखा अजूबा था, एक ऐसा बक्सा जो बोलता था, तरह-तरह की आवाज़ों में, दूर-पास की ख़बरें देता था, बहुत सी नयी-नयी बातें बताता था और बहुत मीठा और सुरीला गाता-बजाता भी था. वो था रेडियो. जल्दी ही वो दोस्त बन गया, दोस्ती बीतते पलों और सालों के साथ गाढ़ी होती गई और आज तक कायम है. रेडियो कहता था, लोग सुनते थे, सुनते थे और गुनते थे यानी उसे मन की आँखों से देखते चलते थे. अपनी-अपनी कल्पना के पंख पर सवार हो कर रेडियो तरंगों के साथ जैसे पूरे ब्रह्माण्ड को नाप आते थे.

वैसे रेडियो की कहानी मनुष्य की कल्पना में तो बहुत पहले शुरू हो गई थी. भारत की अनेक पौराणिक कथाओं में आकाशवाणी होने का ज़िक्र आता है. आकाशवाणी यानि आसमान से आने वाली अशरीरी आवाज़ें. याद कीजिए श्रीकृष्ण जन्म के पूर्व और जन्म के समय की कथा में उन आकाशवाणियों को, जिनमें अत्याचारी कंस को उसके आसन्न अंत की भविष्यवाणियां सुनाई गईं थीं. अपने मूल रूप में रेडियो आकाश से उतरने वाली ध्वनियों का संसार ही तो रचता है.

परिवर्तन एक शाश्वत सत्य है. मीडिया परिदृश्य में अब ढेर सारे नये-पुराने संगी-साथी मौजूद हैं. अख़बार और पत्रिकायें पहले से थीं, बाद में टेलीविज़न भी आ पहुंचा यानी देखो भी और सुनो भी. अब तो दुनिया डिजिटल हो चुकी है. सारा संसार इन्टरनेट के माध्यम से पलों में सब कुछ साझा कर सकता है. पर रेडियो से हमारी दोस्ती बनी हुई है. कुछ रंगरूप बदला है, कहने-सुनने के ढंग और आदतें बदली हैं, तकनीक में तो जैसे क्रांति ही हो गई है. पर सबसे सस्ते, सुलभ, आत्मीय और विश्वसनीय साथी के रूप में रेडियो हमारे साथ बना हुआ है.

जून, 2011 में संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को ने विश्व रेडियो दिवस मनाने का विचार दुनिया के सामने रखा और इसके लिये कुछ संभावित तारीख़ों का प्रस्ताव भी किया. मूल रूप से इसका बीजारोपण स्पेन की रेडियो अकादमी में हुआ था और फिर स्पेन ने ही यूनेस्को के सामने इसे प्रस्तुत किया था. भारत से भी सहमति और उचित तिथि के लिये सुझाव मांगे गए थे, जो भेजे भी गए. यूनेस्को के कार्यकारी मंडल ने नवम्बर, 2011 में घोषित किया कि यह प्रस्ताव स्वीकृत हुआ और विश्व रेडियो दिवस हर साल 13 फ़रवरी को मनाया जाएगा. 13 फ़रवरी, 1946 को यू.एन. रेडियो यानि संयुक्त राष्ट्र रेडियो की स्थापना की गई थी. इस निर्णय को संयुक्त राष्ट्र सामान्य सभा द्वारा भी अंगीकार कर लिया गया.

पहली बार विश्व रेडियो दिवस औपचारिक रूप से 2012 में मनाया गया और तब से हम इसे पूरी रेडियो बिरादरी के साझा उत्सव के रूप में मनाते आ रहे हैं. इस वर्ष इस दिवस की विषयवस्तु या थीम है ‘We are Diversity, We are Radio’ यानि ‘हम हैं विविधता, हम हैं रेडियो’ या संक्षेप में 'रेडियो और विविधता'. भारत जैसे बहुरंगी वैविध्य से सजे हुए देश में यह विषय और भी सार्थक हो उठता है, विशेषकर वर्तमान परिवेश में, जब यह विविधता संकटग्रस्त है.

इस वर्ष विश्व रेडियो दिवस पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने अपने सन्देश में कहा: -

“रेडियो लोगों को नज़दीक लाता है. आज के बेहद तेज़ मीडिया उद्विकास के युग में भी, मूल्यवान समाचारों और सूचनाओं के एक सर्वसुलभ स्रोत के रूप में हर समुदाय में रेडियो ने अपनी विशिष्ट स्थिति को बनाए रखा है.

लेकिन रेडियो ऐसे नवाचार का स्रोत भी है, जिसने श्रोताओं के साथ अन्तःक्रियात्मकता और उपयोगकर्ताओं द्वारा स्वयं प्रसारण सामग्री रचे जाने की शुरुआत की, और हालांकि अब यह प्रसारण की मुख्य प्रवृत्ति बन चुकी है, पर रेडियो ने इसे कई दशक पहले अपना लिया था.

रेडियो अपनी कार्यक्रम विधाओं, अपनी प्रसारण भाषाओं और रेडियो प्रसारणकर्ताओं तथा कार्मिकों – इन सभी क्षेत्रों में अद्भुत विविधता का प्रदर्शन करता है.

यह पूरी दुनिया के लिये एक महत्वपूर्ण सन्देश है. आज जब हम सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने और जलवायु संकट का सामना करने के लिये प्रयास कर रहे हैं, रेडियो को सूचनाओं और प्रेरणाओं – दोनों के स्रोत के रूप में एक अहम् भूमिका निभानी है.

आइए, इस विश्व रेडियो दिवस पर, हम रेडियो की उस निरंतर शक्ति को मान्यता दें, जो विविधता को प्रोत्साहन देती है और एक अधिक शांतिपूर्ण और समावेशी संसार के निर्माण में हमारी मदद करती है.”

हमारे देश में एक बहुत लम्बे समय तक रेडियो का एक ही मतलब था आल इण्डिया रेडियो यानी आकाशवाणी. लोक सेवा प्रसारण के तीन प्रमुख आयाम हैं सूचना, शिक्षा और मनोरंजन. भारत में आज़ादी के बाद से देश के नवनिर्माण और विकास की मुहिम में आकाशवाणी एक समर्थ और समर्पित साथी के रूप में लगातार सक्रिय है. हरित क्रांति के जनक महान कृषि वैज्ञानिक डा. एम. एस. स्वामिनाथन ने उस क्रांति के नायकों में आकाशवाणी का नाम लिया था.

भारत में रेडियो यानी आकाशवाणी की यात्रा में अनेक अत्यंत प्रतिभाशाली प्रतिभायें सहचर बनीं. संगीत, साहित्य, खेल, विज्ञानं और सार्वजनिक जीवन से जुड़े चिंतन-मनन के लगभग सभी क्षेत्रों का शायद ही कोई ऐसी मूर्धन्य विभूति हो, जिसका नाता आकाशवाणी से न रहा हो. साहित्य और भाषाओं के संरक्षण और संवर्द्धन में रेडियो की भूमिका और परंपरा सर्वविदित है. रेडियो में साहित्य की उपस्थिति, संस्कारों और प्रभावों का समुचित आकलन अभी शेष है.

रेडियो के प्रसारकों में भी समाचारवाचकों से ले कर नाटकों, रूपकों के निर्माताओं और उद्घोषकों-प्रस्तोताओं की सितारों जैसी जगमगाती एक सुदीर्घ श्रंखला है, जिनकी स्मृतियाँ हम सबको रोमांचित करती हैं. आकाशवाणी की सबसे लोकप्रिय चैनलों में निस्संदेह विविध भारती का नाम सबकी ज़ुबान पर आता है. सुरुचिपूर्ण मनोरंजन के उद्देश्य को समर्पित विविध भारती के कार्यक्रम श्रोताओं के एक बड़े वर्ग के दिल में रचे-बसे रहे हैं.

आकाशवाणी ने अपने अस्तित्व में आने के बाद के भारत के इतिहास के लगभग सभी निर्णायक और महत्वपूर्ण पलों का पूरे देश को साक्षी बनाया. जहां अनेक सुखद उपलब्धियों की गाथा सुना कर उसने देश को आह्लादित और गौरवान्वित किया, वहीं कुछ बेहद पीड़ादायक पलों के सत्य का साक्षात्कार भी कराया. राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के जीवन के अंतिम काल में दिल्ली में उनकी दैनिक प्रार्थना सभा की रोज़ रिकॉर्डिंग कर प्रसारित की जाती थी. वह दायित्व सँभालने वाले दल के सदस्यों ने बापू की हत्या का दारुण दृश्य भी देखा था.

रेडियो के कार्यक्रम समाज के सभी लोगों के लिये होते हैं पर कुछ ख़ास कार्यक्रम कुछ विशेष श्रोता वर्गों जैसे युवाओं, महिलाओं, बच्चों, बड़े-बुजुर्गों, ग्रामीण श्रोताओं, औद्योगिक श्रमिकों, सैन्य बालों के सदस्यों आदि को समर्पित होते हैं. रेडियो के श्रोताओं में भी अद्भुत विविधता के दर्शन होते हैं.

मीडिया के क्षेत्र में अद्भुत तकनीकी और शैलीगत प्रगति हुई है, पर प्राकृतिक आपदा प्रबंधन में संसार भर में रेडियो सर्वश्रेष्ठ और सबसे प्रभावी माध्यम बना हुआ है.आपदा प्रबंधन संचार में सामान्य रेडियो के अलावा ‘हैम रेडियो’ नामक एक शौकिया रेडियो तकनीक भी अत्यंत प्रभावी भूमिका निभाती है.

आज भूमंडलीकरण के दौर में हम ‘विश्व-ग्राम’ की अवधारणा को साकार होते देख रहे हैं. पर रेडियो ने अपने अस्तित्व के आरंभिक दिनों से ही समूची दुनिया और सारी इंसानियत को एक सूत्र में बाँधने का उपक्रम किया. अनेक महत्वपूर्ण प्रसारण संगठन अपने देश के साथ-साथ शेष दुनिया के लोगों के लिये उनकी भाषाओं में कार्यक्रम प्रसारित करते हैं. आकाशवाणी भी ऐसे प्रसारकों में शामिल है. इन रेडियो प्रसारणों के ज़रिये अलग-अलग देशों की भाषायें ही नहीं, वहां की सभ्यतायें और संस्कृतियां भी विश्व भ्रमण करती हैं और संसार भर के लोगों को एक-दूसरे से गहराई से परिचित ही नहीं करातीं, बल्कि मज़बूती से जोड़ती भी हैं.

मीडिया में कामकाज की सार्थकता का सवाल हमेशा प्रासंगिक होता है. क्या है जो एक रेडियो प्रसारक को यह संतोष देता है कि उसने वास्तव में कुछ ऐसा किया है, जो उसे एक आत्मिक संतोष दे सके. शायद वह है सामाजिक सोद्देश्यता का बोध.

हमारे देश में रेडियो की ज़्यादातर कहानी आकाशवाणी में समाहित रही है. पर बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के संधिकाल में पहले निजी स्वामित्व वाले व्यावसायिक रेडियो चैनल आए, जिन्होंने रेडियो कार्यक्रमों की कथावस्तु और उसकी प्रस्तुति शैली के व्याकरण में अनेक दिलचस्प बदलाव रचे. रेडियो के संसार का एक अपेक्षाकृत नया पर बहुत ही महत्वपूर्ण आयाम है सामुदायिक रेडियो आन्दोलन.

तुर्की के महान कवि नाज़िम हिकमत ने इटली के वैज्ञानिक मारकोनी के आविष्कार यानी रेडियो के जन्म को इन शब्दों में व्यक्त किया था जिसने मुक्त किया आवाज़ों को गगन में नीलपाखी परिंदों की तरह. गगन अब भी गूँज रहा है इन परिंदों की उड़ान के साथ. रेडियो हमारे साथ है और रहेगा, बातें करता, गाता-गुनगुनाता, हमारे सुख़-दुःख बांटता, हमें अनंत की ओर यात्रा में आगे ही आगे ले जाता और हमारे साथ चलता. दोस्त, साथी, सहयात्री.

Thursday, February 6, 2020

भारंगम-2020: उद्घाटन में 'अमोल'

शनिवार, 1 फ़रवरी, 2020 को दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (National School of Drama popularly known by its acronym NSD) के आयोजन भारत रंग महोत्सव (भारंगम) के 21वें संस्करण का शुभारम्भ हुआ।
उद्घाटन समारोह कमानी प्रेक्षागृह में सम्पन्न हुआ। मुख्य अतिथि थीं सुविख्यात गायिका और रंगकर्मी विदुषी ऋता गांगुली जी (महान गायिका बेग़म अख़्तर की ख़ास शागिर्द) और विशिष्ट अतिथि थे मराठी और हिंदी के जानेमाने रंगकर्मी और सिने अभिनेता डॉ. मोहन अगाशे। इन दोनों विभूतियों को प्रत्यक्ष सुनना बेहद मूल्यवान अनुभव था।
उद्घाटन समारोह के बाद भारंगम-2020 की पहली नाट्य प्रस्तुति 'कुसूर' मंचित हुई, जो डेनमार्क की फ़िल्म 'Den Skyldige' पर आधारित थी। इसके हिन्दी पाठ की लेखिका और सह-निर्देशक थीं सन्ध्या गोखले। पुणे के नाट्य-समूह अन्नान निर्मिती की इस प्रस्तुति में मुख्य अभिनेता और निर्देशक के दोहरे दायित्व निभाए थिएटर, फ़िल्मों और टेलीविज़न की दिग्गज हस्ती अमोल पालेकर ने। अमोल जी अभी हाल में 75 वर्ष के हुए हैं और ख़ूब चुस्त और सक्रिय हैं।
नाटक एक रहस्य कथा के रूप में आगे बढ़ता है, पर रहस्योद्घाटनों की श्रंखला बाह्य जगत ही नहीं, बल्कि पात्रों और उनके माध्यम से दर्शकों को भी अपने भीतर के बीहड़ यथार्थ के अंधेरों से भी निर्ममतापूर्वक रूबरू कराती है, जो अन्ततः सभी को विरेचन (catharsis) से गुज़ारती है।
नाट्य प्रस्तुति के बाद मुझे अमोल पालेकर जी के संक्षिप्त सान्निध्य का सुअवसर भी मिला, जिसमें मैंने उन्हें याद दिलाया कि 1993-94 में आकाशवाणी महानिदेशालय में निर्मित कैशोर्य जीवन पर हिन्दी रेडियो नाट्य धारावाहिक 'दहलीज़' में एक उपन्यासकार के रूप में प्रस्तुत किए गए सूत्रधार का चरित्र उन्होंने निभाया था (और क्या ख़ूब निभाया था)। इस धारावाहिक का लेखन प्रख्यात रंगकर्मी और नाटककार सुश्री त्रिपुरारी शर्मा ने किया था और इसकी आरम्भिक 26 कड़ियों की प्रस्तुति मैंने और सह-प्रस्तोता मुकेश सक्सेना ने की थी। मैं आकाशवाणी, जबलपुर से और मुकेश आकाशवाणी, ग्वालियर से इस निर्मिति हेतु लगभग छह महीने के प्रवास पर दिल्ली आ कर रहे थे।
बहरहाल, 'दहलीज़' कथा.फिर कभी और आगे बढ़ेगी। आज के लिये महत्वपूर्ण बात यह कि अमोल जी को भी रेडियो नाटक की दुनिया में अपनी वह भागीदारी याद आई (उनकी रिकॉर्डिंग मुम्बई में की जाती थी और आकाशवाणी, मुम्बई के सौजन्य से हमें हर सप्ताह दिल्ली में प्राप्त होती थी)। फलत: उनके साथ एक छायाचित्र का सौभाग्य मुझे मिला।
चलते-चलते यह उल्लेख भी समीचीन होगा कि 'रजनीगंधा', 'छोटी सी बात', 'चितचोर' से ले कर अनेक बेहद प्रिय और आत्मीय फ़िल्मों में सहज-सरल से ख़ासे जटिल तक चरित्रों को साकार करने वाले अमोल पालेकर जी हमारे विश्वविद्यालय के दिनों से हमारे बहुत मनचाहे कलाकार रहे हैं। मेरे विद्यालय काल से अब तक के घनिष्ठतम मित्रों में एक सुदीप भट्टाचार्य के रूपरंग में अमोल जी से ख़ासा सादृश्य है, जिस पर सुदीप के परिजन और हम मित्र मोहित रहते हैं। एक और दिलचस्प तथ्य यह भी कि भीमसेन निर्देशित महान प्रेमकथात्मक फ़िल्म 'घरौंदा' (अमोल पालेकर, ज़रीना वहाब और डॉ. श्रीराम लागू की अविस्मरणीय भूमिकाओं के साथ) में अमोल जी के चरित्र का नाम सुदीप ही है।