इस बार वास्तव में अन्तराल बहुत लंबा हो गया है। पिछली बार मैंने चर्चा की थी घर बदलने की तैयारी की। इस बीच वह हुआ और उससे सब कुछ जो अस्त-व्यस्त सा हो जाता है, वह अब तक हो रहा है। बहरहाल, अब फिर यह कोशिश शुरू होती है। चलना और रुकना, रुकना और फिर चलना - जैसे यह ज़िंदगी में होता है, वैसे ही ब्लॉग में भी।
और संयोग देखिये कि इस बार भी एक त्योहार के ठीक बाद का ही समय है, जब यह सिलसिला फिर शुरू हो रहा है। जो दिन बीता है, वह विजयदशमी का था, जिसके ऐन पहले नवरात्रि पर्व संपन्न हुआ और नवरात्रि के दौरान ही ईद हुई, जो रमजान के मुबारक माह के फ़ौरन बाद आती है। इस तरह यह त्योहारों की एक पूरी शानदार श्रृंखला ही रही है और अब बारी है शरद पूर्णिमा और फिर दीपावली की। यह निश्चित तौर पर पूरे संसार में सिर्फ़ भारत में ही होता है कि इतनी बहुलता और विविधता के साथ जीवन के इतने सारे उत्सव हम मना पाते हैं।
वैसे अब जैसे जीवन के और तमाम क्षेत्रों में, वैसे ही त्योहारों को मनाने के हमारे तौर-तरीकों में कई फर्क आए हैं। मीडिया हर रोज़ तो कान और जान खाता ही है, इन अवसरों पर वह और बड़ी मुसीबत बन जाता है। एक चीज़ जो मुझे निजी तौर पर काफ़ी उबाऊ और उलझन भरी लगती है, वह है हर त्योहार पर एस.एम.एस. की बाढ़। समकालीन जीवन का यह काफ़ी कठिन शिष्टाचार है, जो इन मौकों पर कमोबेश निभाना ही पड़ता है। इस पर और चर्चा फिर कभी।
अपने इस ब्लॉग आख्यान का अवलोकन करता हूँ, तो मुझे लगता है, जैसे पत्र-पत्रिकाओं के त्योहारी विशेषांक होते हैं, कुछ वैसा ही हाल इसका भी हुआ जा रहा है। वैसे मैं काफ़ी मनहूस मानुष हूँ, पर भारत किसी को भी लगातार मनहूस नहीं रहने देता। फिर भी, कोशिश रहेगी कि रोज़मर्रा के जीवन पर कुछ ज़्यादा लिखा जाए और त्योहारों पर कुछ कम, क्योंकि भारत में भी त्योहारों के दिनों से कहीं ज़्यादा सीधे-टेढ़े दिन ही जिए जाते हैं। जिंदगी की दाल-रोटी उन्हीं से चलती है और सबसे मूल्यवान उमंगें और आंसू उन से ही उपजते हैं.
Tuesday, September 29, 2009
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