विश्व पुस्तक मेले में आख़िरी दो दिनों में जाना हुआ. साहित्यिक मित्रों में कहानीकार राजेन्द्र दानी मिले और रमेश उपाध्याय जी से उनके शब्द-संधान प्रकाशन के स्टाल पर ही भेंट हुई. प्रज्ञा, राकेश और संज्ञा से भी. संज्ञा की पहली किताब उसके हस्ताक्षर के साथ मिली. बहुत से साथी इस आयोजन के अन्य प्रसंगों यथा पुस्तक विमोचन-लोकार्पण आदि में भी मनोयोगपूर्वक सहभागिता करते हैं, पर मेरा मन इन सबसे अब बिलकुल उचट गया है. किताबों के बीच घूमना, उन्हें देखना, छूना, उलटना-पलटना, यथासंभव ख़रीदना - इतना अपने लिए अब काफ़ी रहता है. अकेले होने के दुःख तो जगजाहिर हैं, पर सुख भी होते हैं. और दिल्ली में तो अकेलापन एक नियामत ही है.