घर बदलने की प्रक्रिया से गुज़र रहा हूँ। दिल्ली में यह चौथा घर होगा। अब तक के मकान किराये के थे। यह नया घर भी किराये का ही होगा, पर एक फ़र्क़ के साथ। इस बार मकान मालिक भारत सरकार होगी। एक और बड़ा अन्तर यह है कि अब तक के सारे बदलाव एक ही अपार्टमेन्ट के भीतर हुए थे यानि सिर्फ़ फ्लैट बदला था, बाकी पता ज्यों का त्यों रहा था। इस बार तो इलाका ही बदल जाने को है। पश्चिम दिल्ली से दक्षिण दिल्ली। आसपास बदल जाएगा, घर और इर्दगिर्द का भूगोल बदल जाएगा। दफ्तर जाने और घर लौटने का रास्ता बदल जाएगा। रोज़ दिखने वाले चेहरे बदल जायेंगे। शायद कुछ-कुछ हम भी बदल जायेंगे।
जिस क्षेत्र में जा रहा हूँ, उसको ले कर एक दिलचस्प बात यह है कि मित्र तेजिंदर के एक पूर्व उपन्यास 'उस शहर तक' में वर्ग चिंतन और पहचान का एक मुद्दा ही यह था कि मुख्य पात्र को दिल्ली के एक अमीर चटक-मटक इलाके से एक सामान्य सरकारी नौकरों की रिहाइश वाले इलाके में जा कर रहने को ले कर फैसला करना था। जिस जगह मैं जाने को हूँ, वह वही है, जहाँ तेजिंदर के नायक को जाना था. उस उपन्यास की एक समीक्षा मैंने भी लिखी थी और इस बात को इस कदर महत्व दिए जाने से असहमति ही दर्शाई थी। इस समय मुझे वह सारी बात एक 'पोएटिक जस्टिस' की तरह महसूस हो रही है।
पर एक और एहसास चुभ रहा है। दिल्ली से अपनी नाराजगी मैंने लोगों को चिल्ला-चिल्ला कर बार-बार सुनाई है। जहाँ रहता रहा हूँ, वह बिजनेस क्लास के प्रभुत्व वाला इलाका है और मेरे चिढ़ने और आलोचना करने के लिए यहाँ काफ़ी सामान है। पर अब जब यह छूटने को है, इस जगह से कुछ-कुछ मोह जैसा लग रहा है। प्रेमचंद ने अपने उपन्यास 'गबन' में लिखा ही था, "जीवन एक सुदीर्घ पछतावे के सिवा और क्या है."
Wednesday, August 19, 2009
Friday, August 14, 2009
जन्माष्टमी
कई दिन बीत गए हैं कुछ लिखा नहीं। रोज़मर्रा की भागदौड़ में ही जैसे सारा समय कोई हाथ से छीनकर ले गया। आजकल ज़्यादातर यही तो होता है। लगातार की एक अजीब सी भागमभाग मची रहती है, पर ज़रा सा ठहरने का मौका मिले, तो सारा तूफ़ान जैसे बिल्कुल निरर्थक मालूम पड़ता है। हाल में कहीं पढ़ा है कि जीवन को पूरी तरह तयशुदा और दूसरों द्वारा निर्धारित गतिविधियों में नहीं उलझे रहना चाहिए,बल्कि बीच-बीच में कुछ-कुछ अपने मन का अपने ढंग से करते रहना चाहिए। कवि भगवत रावत का संग्रह है 'दी हुई दुनिया', पर हमें हमेशा इस दी गयी दुनिया की संगति की ही चाल नहीं चलनी चाहिए। और जैसा कि मेरी मित्र गीतांजलि एक उद्धरण के माध्यम से कहा करती थीं, इस 't'yranny of should' यानि 'चाहिए की तानाशाही' से भी लड़ना चाहिए। पर मज़ा देखिये, इसमें भी 'चाहिए' आ ही जाता है।
बीच में एक दिन एक विचित्र सी बात हुई। यहाँ लिखना शुरू किया और ख़ासा लंबा लिख भी मारा, मन का और मज़े का भी। पर उसे publish करने के पहले पता नहीं क्या मूर्खता की कि सब ऐसा उड़ा कि हज़ार कोशिशों के बाद भी उसे लौटा न सका। जो उसमें कहा था, फिर कभी दोहराने की कोशिश करूंगा।
पिछली बार जब सफलतापूर्वक लिख पाया था, तो रक्षाबंधन का त्योहार था। आज भी एक पर्व का ही दिन है - जन्माष्टमी का। यहाँ दिल्ली में जहाँ रहता हूँ, उसके पास पंजाबी बाग में बड़े विराट रूप में इसे मनाया जाता है। भयंकर भीड़ और भीषण धूमधाम होती है। किसी भी सार्वजनिक आयोजन की सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण आजकल यह प्रतीत होता है कि उससे अन्य सामान्य लोगों को कितना कष्ट होता है, कितना शोर मचाया जाता है, यातायात कितने शानदार तरीके से कितनी ज़्यादा देर तक अवरुद्ध होता है। इन सब कसौटियों पर यह आयोजन अत्यन्त सफल माना जा सकता है। यहाँ शायद एक बार हेमा मालिनी जी का नृत्य भी हो चुका है।
पर कृष्ण जन्म का जो मूल भाव है, अन्याय से संघर्ष का, अत्याचारी राजसत्ता के विरुद्ध सामान्य श्रमजीवी वर्ग के संगठित प्रतिरोध का, शैशव के अप्रतिम भोलेपन का, प्रेम और अनुराग का, उसका इस आयोजन में या इस जैसे ही जगह-बेजगह होने वाले अन्य अनेक समारोहों में मुझे तो लेशमात्र नहीं दिखाई देता। क्या हम सब अपने संस्कारों और परम्परा के मर्म को इस पूरी तरह भूल गए हैं और केवल चकाचौंध और वैभव तथा शक्ति प्रदर्शन के लिए उनका दुरुपयोग ही हमारे लिए सम्भव रह गया है?
बीच में एक दिन एक विचित्र सी बात हुई। यहाँ लिखना शुरू किया और ख़ासा लंबा लिख भी मारा, मन का और मज़े का भी। पर उसे publish करने के पहले पता नहीं क्या मूर्खता की कि सब ऐसा उड़ा कि हज़ार कोशिशों के बाद भी उसे लौटा न सका। जो उसमें कहा था, फिर कभी दोहराने की कोशिश करूंगा।
पिछली बार जब सफलतापूर्वक लिख पाया था, तो रक्षाबंधन का त्योहार था। आज भी एक पर्व का ही दिन है - जन्माष्टमी का। यहाँ दिल्ली में जहाँ रहता हूँ, उसके पास पंजाबी बाग में बड़े विराट रूप में इसे मनाया जाता है। भयंकर भीड़ और भीषण धूमधाम होती है। किसी भी सार्वजनिक आयोजन की सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण आजकल यह प्रतीत होता है कि उससे अन्य सामान्य लोगों को कितना कष्ट होता है, कितना शोर मचाया जाता है, यातायात कितने शानदार तरीके से कितनी ज़्यादा देर तक अवरुद्ध होता है। इन सब कसौटियों पर यह आयोजन अत्यन्त सफल माना जा सकता है। यहाँ शायद एक बार हेमा मालिनी जी का नृत्य भी हो चुका है।
पर कृष्ण जन्म का जो मूल भाव है, अन्याय से संघर्ष का, अत्याचारी राजसत्ता के विरुद्ध सामान्य श्रमजीवी वर्ग के संगठित प्रतिरोध का, शैशव के अप्रतिम भोलेपन का, प्रेम और अनुराग का, उसका इस आयोजन में या इस जैसे ही जगह-बेजगह होने वाले अन्य अनेक समारोहों में मुझे तो लेशमात्र नहीं दिखाई देता। क्या हम सब अपने संस्कारों और परम्परा के मर्म को इस पूरी तरह भूल गए हैं और केवल चकाचौंध और वैभव तथा शक्ति प्रदर्शन के लिए उनका दुरुपयोग ही हमारे लिए सम्भव रह गया है?
Thursday, August 6, 2009
आभार
आज देखा कि दो अब तक मेरे लिए अज्ञात मित्रों ने भी उत्साहवर्द्धक टिप्पणियाँ की हैं। यह जैसे एक नए संसार में प्रवेश करने जैसा है। मैं इनका धन्यवाद तो करना ही चाहता हूँ, साथ ही उन पहले से चले आ रहे साथियों का भी ख़ास तौर पर, जिन्होंने कष्ट कर के सदस्य बनने की ज़हमत उठाई है।
जो आज बीत कर अब कल बन रहा है, वह रक्षाबंधन के त्योहार को समर्पित दिन था। उससे सम्बद्ध गतिविधियाँ चलती रहीं, आकाशवाणी पर 'राखी' की अनोखी महिमा का बखान और उसके विविध भावों को दर्शाते गीत सुनता रहा और सोचता भी गया कि इसका रूप कितना बदल गया है, मेरे लिए निजी तौर पर भी और व्यापक सामजिक परिदृश्य में भी। शायद यह भारत का अपना अनूठा एक त्योहार है, हमारी सामूहिक स्मृतियों और संस्कारों में रचा-बसा, उसके बहुत बहुत पहले से, जब ग्रीटिंग कार्ड उद्योग ने हमारे सभी आत्मीय संबंधों को परिभाषित और लगभग नियंत्रित करना शुरू कर दिया था. पर यह तो काफ़ी दिनों से होता आ रहा है कि कई घरों में संपन्न और विपन्न, सफल और संघर्षरत भाइयों के बीच बहनों की ओर से भी व्यवहार का अन्तर देखा जाने लगा था और कई बेरोजगार भाई रक्षाबंधन के पूरे दिन भर घर से गायब रहते थे कि उनको तिरस्कार न झेलना पड़े. पर फिर भी यह त्योहार यह राहत दे जाता है कि इस लगातार अधिक व्यावसायिक और हिंसक होते जा रहे दौर में असंख्य मन इस दिन एक अद्भुत तरलता और निष्ठा में डूब जाते हैं और इस तरह अपना प्रतिकार भी व्यक्त करते हैं.
जो आज बीत कर अब कल बन रहा है, वह रक्षाबंधन के त्योहार को समर्पित दिन था। उससे सम्बद्ध गतिविधियाँ चलती रहीं, आकाशवाणी पर 'राखी' की अनोखी महिमा का बखान और उसके विविध भावों को दर्शाते गीत सुनता रहा और सोचता भी गया कि इसका रूप कितना बदल गया है, मेरे लिए निजी तौर पर भी और व्यापक सामजिक परिदृश्य में भी। शायद यह भारत का अपना अनूठा एक त्योहार है, हमारी सामूहिक स्मृतियों और संस्कारों में रचा-बसा, उसके बहुत बहुत पहले से, जब ग्रीटिंग कार्ड उद्योग ने हमारे सभी आत्मीय संबंधों को परिभाषित और लगभग नियंत्रित करना शुरू कर दिया था. पर यह तो काफ़ी दिनों से होता आ रहा है कि कई घरों में संपन्न और विपन्न, सफल और संघर्षरत भाइयों के बीच बहनों की ओर से भी व्यवहार का अन्तर देखा जाने लगा था और कई बेरोजगार भाई रक्षाबंधन के पूरे दिन भर घर से गायब रहते थे कि उनको तिरस्कार न झेलना पड़े. पर फिर भी यह त्योहार यह राहत दे जाता है कि इस लगातार अधिक व्यावसायिक और हिंसक होते जा रहे दौर में असंख्य मन इस दिन एक अद्भुत तरलता और निष्ठा में डूब जाते हैं और इस तरह अपना प्रतिकार भी व्यक्त करते हैं.
Wednesday, August 5, 2009
आरम्भ
दो मित्र आ पहुंचे हैं। एक ने संक्षिप्त टिप्पणी भी कर दी है। कहना तो होने लगा था, अब सुनना भी शुरू हुआ है। यह जो हमारा समय है, उसके अनेक और लगातार बदलते चेहरों में संवाद की नई ज़रूरतों के हिसाब से नए माध्यमों और मंचों का प्रादुर्भाव भी एक है। ई-मेल अधिकतर व्यक्ति से व्यक्ति के बीच का कथोपकथन है। यदि समूह से कुछ कहा भी जाता है, तो निश्चित लक्ष्यित समूह से ही। या फिर आगे बढ़ाते रहने की एक श्रृंखला चलती है। यहाँ ब्लॉग की दुनिया में अपनों से भी कहा जाता है और अनजानों से भी। इसकी चुनौतियां और संभावनाएं जानने और परखने तथा बरतने की इच्छा है
Tuesday, August 4, 2009
दिल्ली का दर्द
दिल्ली भी अजीब है और उससे ज़्यादा अजीब मैं हूँ, जो यह सबकी जानी-पहचानी बात ऐसे लिख रहा हूँ, मानो मैंने कोई नयी खोज कर ली है। दिवंगत कवि वेणुगोपाल की यह कविता यहाँ इस बीच मैंने न जाने कितनी बार कितनों को सुनाई है - "जो लोग दिल्ली जा रहे हैं, वे क्या वहाँ भी जायेंगे, जहाँ दिल्ली जा रही है।" पाँच साल इस शहर में होने को आए, क्या इस बीच मैं कुछ-कुछ उस ओर नहीं गया हूँ, जहाँ दिल्ली जा रही है? सवाल अब यह है कि क्या मैं अपना कुछ ऐसा बचा पाया हूँ, जो दिल्ली की गिरफ़्त में न आया हो?
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