विश्व पुस्तक मेले में आख़िरी दो दिनों में जाना हुआ. साहित्यिक मित्रों में कहानीकार राजेन्द्र दानी मिले और रमेश उपाध्याय जी से उनके शब्द-संधान प्रकाशन के स्टाल पर ही भेंट हुई. प्रज्ञा, राकेश और संज्ञा से भी. संज्ञा की पहली किताब उसके हस्ताक्षर के साथ मिली. बहुत से साथी इस आयोजन के अन्य प्रसंगों यथा पुस्तक विमोचन-लोकार्पण आदि में भी मनोयोगपूर्वक सहभागिता करते हैं, पर मेरा मन इन सबसे अब बिलकुल उचट गया है. किताबों के बीच घूमना, उन्हें देखना, छूना, उलटना-पलटना, यथासंभव ख़रीदना - इतना अपने लिए अब काफ़ी रहता है. अकेले होने के दुःख तो जगजाहिर हैं, पर सुख भी होते हैं. और दिल्ली में तो अकेलापन एक नियामत ही है.
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अभी जयपुर में पांच दिवसीय पुस्तक मेले का आयोजन चल ही रहा था ,पुस्तकों के विषय जब से उत्तेजक होने लगे है ,तभी से विवाद या वाद की भावना उभरने लगी है ,इसके लिए साहित्य में अश्लील शब्द भी ज़िम्मेदार है ,चाहे इस्मत चुगताई हो या बनारस के काशीनाथसिंह हो कौन सा संस्कार आने वाली पीढी को देना चाहते है ,क्या उन्हीं शब्दों से उनका भी स्वागत गान आने वाले लोग करेगे कतरनों की किताब लज्जा ने तसलीमा को भुला दिया ,कोलकाता में पुस्तक मेले में क्रिकेटर इमरान खान ने कहा-भावनाओं से खेलने का हक नहीं ,फिर मेले की बिजली गुल हो गयी मजबूरी में बातचीत के बाद इमरान को हटाया गया रश्दी को भारत आने ही नही दिया गया यही स्थिति रही तो पुस्तक मेले में साहित्यकारों के प्रवेश पर गनर की जरूरत आ पड़ेगी हो हल्ला होगा साहित्य घातक होने के साथ सशस्त्र लेखन की ओर बढ़ेगा और साहित्यकार दुर.......आचार की ओर ....जैसा की किसी विश्व-विद्यालय के साहित्यकार ने कुछ ....महिला साहित्यकार पर टिप्पणी कर साहित्य के मेले से अलग मेला बनाया था ज़िन्दगी में मेले होगें पर हम अकेले होंगे ....
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