Thursday, January 30, 2020

पढ़ते कैसा यह मोक्ष मन्त्र?

आज पूरा दिन मन बेहद विक्षुब्ध रहा है। देशभक्ति के भावों से ओतप्रोत काव्यधारा के लिये सुविख्यात राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी की राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को समर्पित कविता 'युगावतार गाँधी' का स्मरण आज बापू की पुण्यतिथि और समकालीन सन्दर्भों में उचित लग रहा है: -
"चल पड़े जिधर दो डग, मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर;
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गए कोटि दृग उसी ओर
,
जिसके शिर पर निज हाथ धरा
उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ
जिस पर निज मस्तक झुका दिया
झुक गए उसी पर कोटि माथ;
हे कोटि-चरण, हे कोटि-बाहु
हे कोटि-रूप, हे कोटि-नाम!
तुम एक मूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि
हे कोटिमूर्ति तुमको प्रणाम!
युग बढ़ा तुम्हारी हंसी देख
युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,
तुम अचल मेखला बन भू की
खींचते काल पर अमिट रेख;
तुम बोल उठे युग बोल उठा
तुम मौन रहे, युग मौन बना,
कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर
युगकर्म जगा, युगधर्म तना;
युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक
युग संचालक हे युगाधार!
युग-निर्माता, युग-मूर्ति तुम्हें
युग युग तक युग का नमस्कार!
दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से
तुम काल-चक्र की चाल रोक,
नित महाकाल की छाती पर
लिखते करुणा के पुण्य श्लोक!
हे युग-द्रष्टा, हे युग सृष्टा,
पढ़ते कैसा यह मोक्ष मन्त्र?
इस राजतंत्र के खण्डहर में
उगता अभिनव भारत स्वतन्त्र!"
कभी तय तो यही हुआ था। पर हुआ क्या है? जूझना होगा अपने भीतर भी, बाहर भी।

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