इधर कई दिनों से बेहद दौड़-भाग चल रही थी. रविवार का पूरा दिन एक सम्मेलन में भागीदारी में गया था और फिर उसके बाद के डिनर से निबट कर कुछ देर रात ही घर आना हुआ था. सोमवार की सुबह एक अजीब सपना देख रहा था कि बहुत दिनों के बाद पापाजी और फिर मां से फ़ोन पर बात कर रहा हूँ और रोने लगता हूँ और सपने में ही याद आ गया कि अब तो न मां हैं न पापाजी. इस सब पर लगभग superimpose होता हुआ पत्नी का स्वर आया - "अखबार में छपा है कि अलखनंदन का देहांत हो गया."
दु:स्वप्न जारी है.
स्मृतियों में आपाधापी मची है. साल था 1979. एक भीषण निजी आघात से जूझता मैं जबलपुर में ज्ञानरंजन के पास जा पहुंचा था. उनके कहने पर हरिशंकर परसाई के घर आयोजित एक गोष्ठी में गया था. गोष्ठी के बाद भी ज्ञानजी के पास ही बैठा था कि उन्होंने कहा - "ज़रा अपने हमउम्र लोगों के साथ मिलना-जुलना कीजिए." वहां मौजूद हमउम्रों के साथ परिचय हुआ. ये थे अजित हर्षे और अशोक शुक्ल. इनके साथ टंगे-टंगे मैं जबलपुर के तब के एक जनप्रिय अड्डे श्याम टाकीज़ पर पहुंचा. अजित ने अशोक से कहा - "अभी अलख आने वाला है. आज उसे छोड़ना नहीं है. उसके नाटक की सफलता को celebrate करना है और उससे दोसा खाना है. मैंने अपने आप को कुछ अवांछित महसूस करते हुए कहा कि मैं चलता हूँ. पर मुझे रोका गया और मैं रुक गया. अलखनंदन का आगमन हुआ. थोड़ा दोहरा शरीर. गोल और अक्सर गुस्सैल चेहरा जिस पर विद्रूप भरी हंसी भी ख़ूब फ़बती थी. बैठी हुई सी पर ख़ासी तनी और खड़ी हुई आवाज़, जिससे गालियों और फ़ब्तियों के फूल भी लगातार झड़ते थे और कभी-कभी बेहद कोमल कवितायें भी. बढ़े हुए बाल और बढ़ी हुई दाढ़ी से मुझे विशेष अपनापन लगा क्योंकि मेरी अपनी भी तब यही धजा होती थी. कुछ धौलमस्ती और खींचतान के बाद हम करमचंद चौक वाले इंडियन काफ़ी हाउस में थे और दोसे का इनाम मेरे हिस्से में भी आया था.
उसके बाद. उसके बाद? एक ऐसा दोस्त बना जिसने ज़िंदगी को जैसे झकझोर के रख दिया. तब विवेचना की ओर से होने वाले अगले नाटक 'इकतारे की आँख' का rehearsal चल रहा था. हर शाम वहां जाना, उसका हिस्सा बनना और ख़ुद को खोना-पाना. ढेर सारी बातें और लम्बी कड़वी बहसें. दोस्त के भीतर जो कुछ उसे कमज़ोर लगता था, उस पर वह लगभग निर्मम प्रहार करता था. अलख की दोस्ती में एक धक्कामुक्की हमेशा शामिल रहती थी. चौंकाना, चुनौती देना और आगे-आगे धकेलना. और इसके साथ ही वह आपके लिए उस तरह बेचैन भी रहता था जैसे पिता अपने बच्चे के लिये. और इस सबके बीच इस रूखे से लगने वाले आदमी की अद्भुत सृजनात्मकता और सरोकारों को देखना और बहुधा चमत्कृत रह जाना. उससे खूब लड़ना, झींकना, कोसना और साथ ही उसके व्यक्तित्व की तेजस्विता पर जैसे मंत्रमुग्ध रह जाना.
यह बात अभी चलेगी. हम उसके पुराने साथी और मित्र तो अवाक और स्तब्ध हैं. इतना जीवित आदमी गया कहाँ?
अपनी ही एक कविता की पंक्तियाँ याद आ रही हैं: -
"जो नहीं मरे ऐन सामने
कभी नहीं लगते
पूरी तरह मरे हुए"
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