Sunday, February 19, 2012

सपनों की सनद

सपने बदलते हैं. वे भी जो हम देखना चाहते हैं और वे भी जो आँखों में खून की तरह चुभते हैं. वे भी जो जीवन का मतलब और उम्मीद थे. वे भी जो सब कुछ ख़त्म होने का फ़ैसला सुनाते थे. सपने जब सब कुछ संभव था. सपने जब ज़्यादातर शिकायतें बची हैं.

अपनी ज़िंदगी से कुछ ख़ास उम्मीद बची हो कि न बची हो, पर कविता से तो है. एक कविता फिर सांस लेने लगी है. शायद जीवन के उन आख़िरी मौकों में से एक, जब कवितायें दोबारा सांस ले पाती हैं. अद्भुत है कि कवितायें सपनों के बिना नहीं होतीं.

सभी दोस्तों को याद करता हूँ. मां को, पिता को, स्कूल को, विश्वविद्यालय को. नौकरी के शुरुआती सालों को.

कल सनद तो रहेगी.

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