आज देखा कि दो अब तक मेरे लिए अज्ञात मित्रों ने भी उत्साहवर्द्धक टिप्पणियाँ की हैं। यह जैसे एक नए संसार में प्रवेश करने जैसा है। मैं इनका धन्यवाद तो करना ही चाहता हूँ, साथ ही उन पहले से चले आ रहे साथियों का भी ख़ास तौर पर, जिन्होंने कष्ट कर के सदस्य बनने की ज़हमत उठाई है।
जो आज बीत कर अब कल बन रहा है, वह रक्षाबंधन के त्योहार को समर्पित दिन था। उससे सम्बद्ध गतिविधियाँ चलती रहीं, आकाशवाणी पर 'राखी' की अनोखी महिमा का बखान और उसके विविध भावों को दर्शाते गीत सुनता रहा और सोचता भी गया कि इसका रूप कितना बदल गया है, मेरे लिए निजी तौर पर भी और व्यापक सामजिक परिदृश्य में भी। शायद यह भारत का अपना अनूठा एक त्योहार है, हमारी सामूहिक स्मृतियों और संस्कारों में रचा-बसा, उसके बहुत बहुत पहले से, जब ग्रीटिंग कार्ड उद्योग ने हमारे सभी आत्मीय संबंधों को परिभाषित और लगभग नियंत्रित करना शुरू कर दिया था. पर यह तो काफ़ी दिनों से होता आ रहा है कि कई घरों में संपन्न और विपन्न, सफल और संघर्षरत भाइयों के बीच बहनों की ओर से भी व्यवहार का अन्तर देखा जाने लगा था और कई बेरोजगार भाई रक्षाबंधन के पूरे दिन भर घर से गायब रहते थे कि उनको तिरस्कार न झेलना पड़े. पर फिर भी यह त्योहार यह राहत दे जाता है कि इस लगातार अधिक व्यावसायिक और हिंसक होते जा रहे दौर में असंख्य मन इस दिन एक अद्भुत तरलता और निष्ठा में डूब जाते हैं और इस तरह अपना प्रतिकार भी व्यक्त करते हैं.
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Relations are best Kaleidoscopic instruments, they fascinate at their surface..just dig in a little, their complexity may baffle you, for we seldom try to read them, to read us!
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