घर बदलने की प्रक्रिया से गुज़र रहा हूँ। दिल्ली में यह चौथा घर होगा। अब तक के मकान किराये के थे। यह नया घर भी किराये का ही होगा, पर एक फ़र्क़ के साथ। इस बार मकान मालिक भारत सरकार होगी। एक और बड़ा अन्तर यह है कि अब तक के सारे बदलाव एक ही अपार्टमेन्ट के भीतर हुए थे यानि सिर्फ़ फ्लैट बदला था, बाकी पता ज्यों का त्यों रहा था। इस बार तो इलाका ही बदल जाने को है। पश्चिम दिल्ली से दक्षिण दिल्ली। आसपास बदल जाएगा, घर और इर्दगिर्द का भूगोल बदल जाएगा। दफ्तर जाने और घर लौटने का रास्ता बदल जाएगा। रोज़ दिखने वाले चेहरे बदल जायेंगे। शायद कुछ-कुछ हम भी बदल जायेंगे।
जिस क्षेत्र में जा रहा हूँ, उसको ले कर एक दिलचस्प बात यह है कि मित्र तेजिंदर के एक पूर्व उपन्यास 'उस शहर तक' में वर्ग चिंतन और पहचान का एक मुद्दा ही यह था कि मुख्य पात्र को दिल्ली के एक अमीर चटक-मटक इलाके से एक सामान्य सरकारी नौकरों की रिहाइश वाले इलाके में जा कर रहने को ले कर फैसला करना था। जिस जगह मैं जाने को हूँ, वह वही है, जहाँ तेजिंदर के नायक को जाना था. उस उपन्यास की एक समीक्षा मैंने भी लिखी थी और इस बात को इस कदर महत्व दिए जाने से असहमति ही दर्शाई थी। इस समय मुझे वह सारी बात एक 'पोएटिक जस्टिस' की तरह महसूस हो रही है।
पर एक और एहसास चुभ रहा है। दिल्ली से अपनी नाराजगी मैंने लोगों को चिल्ला-चिल्ला कर बार-बार सुनाई है। जहाँ रहता रहा हूँ, वह बिजनेस क्लास के प्रभुत्व वाला इलाका है और मेरे चिढ़ने और आलोचना करने के लिए यहाँ काफ़ी सामान है। पर अब जब यह छूटने को है, इस जगह से कुछ-कुछ मोह जैसा लग रहा है। प्रेमचंद ने अपने उपन्यास 'गबन' में लिखा ही था, "जीवन एक सुदीर्घ पछतावे के सिवा और क्या है."
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